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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 06 Sukta 117
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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आनृण्यम्।
१-३ कौशिकः। अग्निः। त्रिष्टुप्।
अ॒प॒मित्य॒मप्र॑तीत्तं॒ यदस्मि॑ य॒मस्य॒ येन॑ ब॒लिना॒ चरा॑मि ।
इ॒दं तद॑ग्ने अनृ॒णो भ॑वामि॒ त्वं पाशा॑न् वि॒चृतं॑ वेत्थ॒ सर्वा॑न्॥१॥
इ॒हैव सन्तः॒ प्रति॑ दद्म एनज्जी॒वा जी॒वेभ्यो॒ नि ह॑राम एनत्।
अ॒प॒मित्य॑ धा॒न्यं॑१ यज्ज॒घसा॒हमि॒दं तद॑ग्ने अनृ॒णो भ॑वामि ॥२॥
अ॒नृ॒णा अ॒स्मिन्न॑नृ॒णाः पर॑स्मिन् तृ॒तीये॑ लो॒के अ॑नृ॒णाः स्या॑म ।
ये दे॑व॒यानाः॑ पितृ॒याणा॑श्च लो॒काः सर्वा॑न् प॒थो अ॑नृ॒णा आ क्षि॑येम ॥३॥