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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 06 Sukta 110
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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दीर्घायुः प्राप्तिः।
१-३ अथर्वा। अग्निः। त्रिष्टुप्, १ पङ्क्तिः।
प्र॒त्नो हि कमीड्यो॑ अध्व॒रेषु॑ स॒नाच्च॒ होता॒ नव्य॑श्च सत्सि ।
स्वां चा॑ग्ने त॒न्वं पि॒प्राय॑स्वा॒स्मभ्यं॑ च॒ सौभ॑ग॒मा य॑जस्व ॥१॥
ज्ये॒ष्ठ॒घ्न्यं जा॒तो वि॒चृतो॑र्य॒मस्य॑ मूल॒बर्ह॑णा॒त् परि॑ पाह्येनम्।
अत्ये॑नं नेषद् दुरि॒तानि॒ विश्वा॑ दीर्घायु॒त्वाय॑ श॒तशा॑रदाय ॥२॥
व्या॒घ्रेऽह्न्य॑जनिष्ट वी॒रो न॑क्षत्र॒जा जाय॑मानः सु॒वीरः॑ ।
स मा व॑धीत् पि॒तरं॒ वर्ध॑मानो॒ मा मा॒तरं॒ प्र मि॑नी॒ज्जनि॑त्रीम्॥३॥