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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 06 Sukta 122
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
तृतीयो नाकः।
१-५ भृगुः। विश्वकर्मा। त्रिष्टुप्। ४-५ जगती।
ए॒तं भा॒गं परि॑ ददामि वि॒द्वान् विश्व॑कर्मन् प्रथम॒जा ऋ॒तस्य॑ ।
अ॒स्माभि॑र्द॒त्तं ज॒रसः॑ प॒रस्ता॒दच्छि॑न्नं॒ तन्तु॒मनु॒ सं त॑रेम ॥१॥
त॒तं तन्तु॒मन्वेके॑ तरन्ति॒ येषां॑ द॒त्तं पित्र्य॒माय॑नेन ।
अ॒ब॒न्ध्वेके॒ दद॑तः प्र॒यच्छ॑न्तो॒ दातुं॒ चेच्छिक्षा॒न्त्स स्व॒र्ग ए॒व॥२॥
अ॒न्वार॑भेथामनु॒संर॑भेथामे॒तं लो॒कं श्र॒द्दधा॑नाः सचन्ते ।
यद् वां॑ प॒क्वं परि॑विष्टम॒ग्नौ तस्य॒ गुप्त॑ये दम्पती॒ सं श्र॑येथाम्॥३॥
य॒ज्ञं यन्तं॒ मन॑सा बृ॒हन्त॑म॒न्वारो॑हामि॒ तप॑सा॒ सयो॑निः ।
उप॑हूता अग्ने ज॒रसः॑ प॒रस्ता॑त् तृ॒तीये॒ नाके॑ सध॒मादं॑ मदेम ॥४॥
शु॒द्धाः पू॒ता यो॒षितो॑ य॒ज्ञिया॑ इ॒मा ब्र॒ह्मणां॒ हस्ते॑षु प्रपृ॒थक् सा॑दयामि ।
यत्का॑म इ॒दम॑भिषि॒ञ्चामि॑ वो॒ऽहमिन्द्रो॑ म॒रुत्वा॒न्त्स ददातु॒ तन्मे॑ ॥५॥