संहिता
1. प्रकृति और महत्वः
ऋग्वेद मानव ज्ञान का सबसे प्राचीन संकलन है। यह संहिता (संग्रह) अपनी प्रकृति में अद्वितीय है। वास्तव में, यह एक पुस्तक नहीं है, अपितु अनेक पुस्तकों से बना एक संकलन है, जिसे व्यक्तिगत रूप से एक-दूसरे से पृथक् किया जा सकता है। इस संहिता का वर्तमान स्वरूप स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि संग्रह एक कार्य नहीं है, परन्तु पुराने और बाद के तत्व भी शामिल हैं जो इसकी भाषा, शैली और विचारों के विभिन्न रूप इस बात को प्रमाणित करते हैं। इस संहिता के विभिन्न मंत्रों की रचना उन्हें व्यवस्थित रूप में किए जाने से बहुत समय पहले हुआ था।
ऋग्वेद भारत की सबसे प्राचीनतम पवित्र पुस्तक का प्रतिनिधित्व करता है। यह चारों वेदों में सबसे प्राचीन और सबसे बड़ा है। इस वेद में ही वैदिक संस्कृति एवं काव्य की सभी विशेषताओं का ज्ञान हैं। इसमें हमें भारत के धार्मिक और दार्शनिक विकास के बीज मिलते हैं। इस प्रकार कविता, धार्मिक और दार्शनिक महत्व दोनों के लिए, ऋग्वेद का अध्ययन उस व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए जो भारतीय साहित्य और आध्यात्मिक संस्कृति को समझना चाहता है। ऋग्वेद का मूल्य आज भारत तक ही सीमित नहीं है, इसकी उत्तम संरक्षित भाषा और पौराणिक कथाओं के कारण समस्त विश्व की भाषाओं, साहित्य और संस्कृतियों को भलीभाँति समझने में सहायता करता है।
2. रचना और विभागः
संपूर्ण ऋग्वेद-संहिता श्लोक के रूप में है, जिसे ऋक् के रूप में जाना जाता है, जिसका मूलभाव “प्रशंसा” करना है। ‘ऋक्’ उन मंत्रों को दिया गया नाम है जो देवताओं की प्रशंसा के लिए प्रयोग किया जाता हैं। इस प्रकार ऋक् का संग्रह (संहिता) ऋग्वेद-संहिता के रूप में जाना जाता है। ऋग्वेद की केवल एक शाखा सामान्य रूप से उपलब्ध है। और वह है शाकल संहिता। ऋग्वेद संहिता में 10552 मंत्र हैं, जिन्हें मण्डल नामक दस पुस्तकों में वर्गीकृत किया गया है। प्रत्येक मण्डल को कई वर्गों में विभाजित किया जाता है जिन्हें अनुवाक कहा जाता है। प्रत्येक अनुवाक में सूक्त नामक कई मंत्र होते हैं और प्रत्येक सूक्त कई पदों से बना होता है जिसे ऋक् कहते हैं। ऋग्वेद का यह मंडल सबसे लोकप्रिय और व्यवस्थित है, यह अष्टक पद्धति भी है, जो ऋग्वेद की विषय वस्तु को विभाजित करती है,परन्तु आज यह वेद के छात्रों में असामान्य है।
सूक्त मंत्रों का समूह है। किसी सूक्त में मंत्रों की संख्या निश्चित नहीं है। अमुक सूक्तों में मंत्रों की संख्या कम है एवं अन्य अमुक में बड़ी संख्या में मंत्र हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि प्रत्येक ऋग्वेद संहिता का एक दृष्टा (ऋषि) एक देवता औरएक छंद होता है। प्रायः यह पूरे सूक्त के लिए सामान्य है। ऋग्वेद की संहिता में 10 मंडल, 85 अनुवाक, 1028 सूक्त और 10552 मंत्र हैं। अधिकांशतः पर ऋग्वेद के मंत्रों के संदर्भ में अनुवाक का उल्लेख नहीं है। उदाहरण के लिए ऋग्वेद, 3.16.7 का अर्थ ऋग्वेद के तीसरे मंडल के सोलहवें सूक्त के सातवें मंत्र से है।
इस तालिका के द्वारा हम मंडल के विभाजन, प्रत्येक मंडल में सूक्तों की संख्या और मंत्र मंडलों के ऋषियों के नाम जान सकते हैं।
3. कुछ महत्वपूर्ण सूक्त
ऋग्वेद शाकल संहिता के 1082 सूक्तों में से निम्न सूक्त प्रसिद्ध हैः-
1. पुरुष सूक्त
2. हिरण्य-गर्भ सूक्त
3. धन-अन्न-दान सूक्त
4. अक्ष सूक्त
5. नासदीय सूक्त
6. दुःश्वप्न-नाशन सूक्त
7. यम-यमीसंवाद सूक्त
इसके अतिरिक्त, विभिन्न देवताओं, जैसे इन्द्र, मरुत, वरुण, उषा, सूर्य, भूमि, सोम, अग्नि आदि को अर्पित किए गए सूक्त हैं। इस प्रकार हम ऋग्वेद की विषयवस्तु के बारे में संक्षेप में कह सकते हैं कि इसमें विभिन्न विषय हैं, जो वैदिक दृष्टाओं द्वारा काव्यात्मक, दार्शनिक या धार्मिक रूप से प्रस्तुत किये गए हैं।
यजुर्वेद – संहिता
1. प्रकृति और महत्व
यजुर्वेद अपने विषयवस्तु के अनुसार ऋग्वेद और सामवेद से विशेष रूप से भिन्न है। यह मुख्यतः गद्य रूप में है। यजुर्वेद में ‘यजुः’ शब्द को विभिन्न रूप से समझाया गया है। परन्तु इसकी एक परिभाषा कहती है-
गद्यात्मको यजुः
‘यजुः’ वह है जो गद्य रूप में है, एक अन्य परिभाषा के अनुसार ‘यजुर्यजतेः’ इस के यज्ञ के साथ संबंध को व्यक्त करता है क्योंकि दोनों शब्द मूल ‘यज्’ से व्युत्पन्न हैं।
यजुर्वेद स्पष्ट रूप से एक अनुष्ठान वेद अध्वर्यु के लिए एक अनिवार्य मार्गदर्शक है, जिस से यज्ञ में व्यावहारिक रूप से सभी कर्मकाण्डों को करने में सक्षम होता है। जिन के कार्य यज्ञ के लिए एकवेदी (भूखंड के चयन) से लेकर पवित्र अग्नि को आहुति प्रदान करने तक जिस प्रकार सामवेद-संहिता में उद्गाता-पुजारी की गीत-पुस्तक है, उसी प्रकार यजुर्वेद-संहिता अधवर्यु के लिए प्रार्थना-पुस्तक हैं। यह पूरी तरह से यज्ञ के अनुष्ठानों के उद्देश्यों के लिए है।
यजुर्वेद भी दार्शनिक सिद्धांतों की प्रस्तुति के लिए महत्वपूर्ण है। यह प्राण और मन की अवधारणा का प्रचार करता है। यह वेद वैदिक लोगों के धार्मिक और सामाजिक जीवन को रेखांकित करता है साथ ही यह भौगोलिक तथ्य देने में भी प्रयुक्त किया जाता है।
2. विभाग और संहिता
यजुर्वेद में दो विभाग हैं:
1. शुक्ल यजुर्वेद
2. कृष्ण यजुर्वेद
कृष्ण यजुर्वेद में मंत्र और ब्राह्मण के मिश्रण की विशेषता है जबकि शुक्ल यजुर्वेद दोनों के स्पष्ट भिन्नता को बनाए रखता है। शुक्ल यजुर्वेद आदित्य- सम्प्रदाय से सम्बन्धित है और कृष्ण यजुर्वेद ब्रह्म-सम्प्रदाय से सम्बन्धित है।
शुक्ल-यजुर्वेद संहिता पर अपनी टिप्पणी की प्रारम्भ में, एक कहानी महिधर द्वारा यजुर्वेद के दो-विभाजित खण्डों के बारे में दी गई है। ऋषि वैशम्पायन ने ऋषि याज्ञवल्क्य और अन्य विद्यार्थियों को यजुर्वेद पढ़ाया। एक बार वैशम्पायन याज्ञवल्क्य से क्रोधित होकर ऋषियाज्ञवल्क्यको तब तक पढाया हुआ यजुर्वेदज्ञान को त्यागने का आदेश दिया। तत्पश्चात याज्ञवल्क्य ने सूर्य देव से प्रार्थना की, जो अश्व के रूप में उनके समक्ष आए (अर्थात वाजी) और उन्हें पुनःवेद का उपदेश दिया। इसलिए इस यजुर्वेद को वाजसनेयी नाम भी दिया गया।
वर्त्तमान में यजुर्वेद की निम्न संहिताएं उपलब्ध हैः-
शुक्ल यजुर्वेद
1. माध्यन्दिन संहिता
2. कण्व संहिता
कृष्ण यजुर्वेद
1. तैत्तरीयसंहिता
2. मैत्रायणी संहिता
3. कठक संहिता
4. कपिस्थल संहिता
3. विषयवस्तु
हमें यजुर्वेद की संहिता में यज्ञों का विस्तृत वर्णन मिलता है। वाजसनेयी-संहिता में कई महत्वपूर्ण यज्ञों का बृहद वर्णन मिलता है, जैसे दर्शपूर्णमास, अग्निहोत्र, सोमयाग, चातुर्मास्य, अग्निहोत्र, वाजपेय, अश्वमेध, सर्वमेध, ब्रह्म-यज्ञ, पितृमेध, सौत्रामणी, आदि। सामान्य विचार के लिए विषय वस्तुको तीन खंडों में विभाजित किया जा सकता है। प्रथम खण्ड में दर्शपूर्णमास, द्वितीय खंड में सोमयाग और तृतीय खंड में अग्निचयन शामिल हैं। वाजसनेयी-संहिता के अंतिम खण्ड में प्रसिद्ध ईशावास्य-उपनिषद हैं। यह जानना आवश्यक है कि वाजसनेयी- संहिता के प्रथम अठारह मन्त्र पूर्ण रूप से शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण में अर्थानिहित है। इस बिन्दु के आधार पर कुछ विद्वानों का मत है कि इस संहिता के अंतिम खण्ड पश्चात् काल खण्ड का हैं।
सामवेद – संहिता
1. प्रकृति और महत्व
सामवेद चारों वेदों में सबसे छोटा है। यह ऋग्वेद से निकटता से जुड़ा हुआ है। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सामवेद की संहिता एक स्वतंत्र संग्रह (संहिता) नहीं है, अपितु ऋग्वेद की संहिता से लिया गया है। ये छन्द मुख्य रूप से ऋग्वेद के आठवें और नौवें मण्डल से लिए गए हैं। सामवेद को अनुष्ठान के लिए विशेष रूप से संकलित किया गया है, इसके सभी छन्द सोम-यज्ञ के अनुष्ठान और उससे प्राप्त प्रक्रियाओं के विषय है। इसलिए, सामवेद उद्गात्र पुरोहित के लिए विशेष रूप से अभिप्रेत है। गान नामक गीत पुस्तिका में मन्त्र अथवा सामन् पूर्ण रूप से संगीत रूप धारण कर लेते है। जैमिनी सूत्र के अनुसार-गीतकको सामन् कहा जाता है। परम्परा अनुसार वेदों को ‘त्रयी’ कहा जाता है, मंत्रों के तीन भाग होते है- ऋक् = पद, यजुः = गद्य, सामन् = गान।
चारों वेदों में सामवेद को सबसे अग्रणी माना जाता है। भगवद्गीता में, जहां भगवान कृष्ण ने “वेदों में मैं सामवेद हूं” का उल्लेख किया है। -वेदानां सामवेदोस्मि (गीता, 10.22) यहाँ इन्द्र, अग्नि और सोम देवताओं का मुख्य रूप से आह्वान एवं प्रशंसा की जाती है, परन्तु मूल रुपसे यह सारी प्रार्थनाएँ परमब्रह्म के आवाह्न के लिए ही है । आध्यात्मिक अर्थो में, सोम सर्वव्यापी, प्रतापी देवता और ब्रह्म का प्रतिनिधित्व करता है, जो केवल भक्ति और संगीतमय मन्त्र के माध्यम से प्राप्य है। इस प्रकार सामवेद का प्रमुख विषय आराधना और भक्ति (उपासना) माना जा सकता है।
2. रचना और विभाजन
सामन् शब्द का अर्थ है ‘जप’ या ‘गीतक’और इसके छन्द बद्ध मन्त्र संगीत मे परिवर्तित हुए हैं, जो सम्पूर्ण सामवेद संहिता को दर्शाता है। जैमिनी सूत्र के अनुसार-गीतक को सामन् कहा जाता है।
गितिषु सामाख्या
सामवेद ऋक् पर आधारित गीतों और मंत्रों का वेद है। माधुर्य का तत्व ही सामवेद की प्रमुख विशेषता है। यास्क ने शब्द सामन्’ की व्युत्पत्ति सम + म दी है, जिसका अर्थ है कि ऋक् का सामंजस्यपूर्ण उन्मित करना। प्राचीन परंपरा के अनुसार, पतंजलि द्वारा कहा गया था, सामवेद में 1000 शाखाएँ थी। लेकिन वर्तमान में केवल तीन शाखाएँ हैं। ये हैं –
- कौथुमा
- जैमिनीय
- राणायनीय।
वर्तमान काल में कौथुमीय शाखा ही प्रचलित है। सामवेद- कौथुम शाखा में सामवेद संहिता दो भागों में शामिल हैं – पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक। प्रथम भाग में चार भाग हैं:
1. आग्नेय – अग्नि के 114 छन्द
2. ऐन्द्र – इंद्र के 352 छन्द
3. पवमान – पवमान के 119 छन्द
4. आरण्य- इन्द्र, अग्नि, सोमा आदि के लिए 55 छन्द
(महानाम्नी मंत्र -10) इस भाग में 650 छन्दहैं।
सामवेद-संहिता के दूसरे भाग उत्तरार्चिक में कुल 1225 छंद हैं। अतः सामवेद-संहिता में कुल छंदों की संख्या 1875 है। इनमें से 1771 छन्द ऋग्वेद से हैं, इस संहिता के केवल 99 छन्द ऋग्वेद-संहिता में नहीं पाए जाते हैं और इसे सामान्यतः सामवेद के ही माने जाते हैं।
अथर्ववेद – संहिता
1. प्रकृति और महत्व
अथर्वन् का वेद अथर्ववेद कहा जाता है। अथर्ववेद में दुःखों और कठिनाइयों से मुक्ति पाने का निर्देश के साथ-साथ आध्यात्मिक चिन्तनों का वर्णन मिलता है। अथर्वन् का अर्थ आराधक है। इसप्रकार आराधक के रुप में ऋषि-अथर्व द्वारा अथर्ववेद-संहिता के मंत्र प्रकाश में लाये गए है।
निरुक्त की व्युत्पत्ति के अनुसार, अथर्व एक स्थिर दिमाग वाले व्यक्ति को दिया गया नाम है, जो अति दृढ़ है अर्थात योगी। यद्यपि प्राचीन भारतीय साहित्य रचनाओं में इस वेद को अथर्वाङ्गिरसःवेद से सम्बोधित किया गया है। यह अथर्व और अङ्गिरसः का ‘वेद’ है। अङ्गिरसः भी एक भिन्न समूह के शाखाकार थे। पतंजलि के अनुसार, अथर्ववेद में नौ शाखाएँ थीं, अपितु अथर्ववेद की संहिता आज केवल दो शाखाओं में उपलब्ध है – शौनक और पिप्पलाद | जो प्राचीन और आधुनिक साहित्य में अथर्ववेद का उल्लेख हुआ है वह वस्तुतः शौनक-संहिता ही है। यह 730 स्तोत्रों का संग्रह है, जिसमें 5987 मंत्र हैं, जिन्हें 20 काण्डों में विभाजित किया गया है। 1200 छंद ऋग्वेद से लिए गए हैं। अथर्ववेद के पाठ का एक छठाभाग, जिसमें दो पूरी किताबें (15 और 16) शामिल हैं, गद्य में, ब्राह्मणों की शैली और भाषा के समान है, शेष पाठ काव्यात्मक छन्दों में है। परम्परा के अनुसार इस वेद का परिचय ब्रह्म ऋत्विक् से होना चाहिए, जो यज्ञों के पर्यवेक्षक थे। यज्ञ अनुष्ठान में यद्यपि वे तीनों वेदों को जानने वाले थे अपितु सामान्यतः वे अथर्ववेद का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके संग के कारण ही अथर्ववेद को ब्रह्मवेद भी कहा जाता है, जो ब्रह्म का वेद है।
अथर्ववेद भारतीय चिकित्सा का सबसे प्राचीन साहित्यिक स्मारक है। इसे भारतीय चिकित्सा पद्धति (आयुर्वेद) का मूल स्रोत माना जाता है। विभिन्न शारीरिक और मानसिक रोगों को ठीक करने से सम्बन्धित मंत्रों की एक श्रृंखला है। मंत्रों के एक अन्य वर्ग में सांपों के काटने या चोट लगने वाले कीड़ों से सुरक्षा के लिए प्रार्थना भी शामिल है। इसमें औषधी और भैषज्य वनस्पति का उल्लेख और उपयोग मिलता हैं। यह अथर्ववेद विशेषता को शेष वेदों से भिन्न करती है।
इस संहिता के दार्शनिक खण्ड पराभौतिक विचारों के उच्चतम उन्नतिको दर्शाता हैं। इस सिद्धांत के उत्पन्न काल से ही अनेकों अनेक अवधारणाओं, जैसे उपनिषदों में पाये गये जगत के निर्माता और संरक्षक (प्रजापति) से जुड़े विचार, सर्वोच्च देवता के विचार, अवैयक्तिक सृजनात्मक एवं कई दार्शानिक शब्द जैसे ब्राह्मण, तपस, असत्, प्राण, मनस इत्यादि से प्रारम्भ हुआ। अतः भारतीय दार्शानिक विचारों में हुए विकास को सटीक रूप से समझने के लिए अथर्वेद में उपलब्ध दार्शनिक विचारों को जानना अनिवार्य है।
सांसारिक सुख और आध्यात्मिक ज्ञान दोनों से संबंधित रखने वाला वेद एकमात्र अथर्वेद है। सांसारिक एवं संसार से परे इन दोनों पहलुओं को एक सूत्र में पिरोने का सामर्थ्य इस वेद में होने के कारण वैदिक भाष्यकार सायन ने इसकी प्रशंसा की है। इस प्रकार, यह वैदिक साहित्य के एक सामान्य पाठकों के लिए एक मनोहर पाठ की भाँति प्रतीत होता है।
2. विषयवस्तु
अथर्वेद को विविध ज्ञान के वेदों के रूप में देखा जाता है। इसमें कई मंत्र शामिल हैं, जो उनके विषय-वस्तु के अनुसार, मुख्यतः तीन श्रेणियों में विभाजित किए जाते हैं:
1. रोगों के उपचार और प्रतिकूल शक्तियों के विनाश से संबंधित।
2. शांति, सुरक्षा, स्वास्थ्य, धन, मित्रता और दीर्घायु की स्थापना से संबंधित।
3. परमार्थ की प्रकृति, समय, मृत्यु और अमरता से संबंधित है।
ब्लूमफील्ड ने अथर्वेद के विषय को कई श्रेणियों में विभाजित किया है, जैसे कि भैषज्य, पौस्टिक, प्रायश्चित्त, राजकर्मा, स्त्रिकर्म, दर्शना, कुंताप आदि। यहाँ अथर्ववेद के अमुक महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध सूक्तों को सूचीबद्ध किया गया है।
- भूमि-सूक्त (12.1)
- ब्रह्मचर्य-सूक्त (11.5)
- काल-सूक्त (11.53, 54)
- विवाह-सूक्त (14 वां कांडा)
- मधुविद्या-सूक्त (9.1)
- सांमनस्य-सूक्त (3.30)
- रोहित-सूक्त (13.1-9)
- स्कंभ-सूक्त (10.7)
अतःअथर्वेद कई विषयों का एक विश्वकोश है। यह वैदिक लोगों के जीवन को दर्शाता है। दार्शनिक, सामाजिक, शैक्षिक, राजनीतिक, कृषि, वैज्ञानिक और चिकित्सा विषयों से संबंधित उनके विचार इस संहिता में वर्णित हैं। अंततः, हम कह सकते हैं कि वेद संहिता अपनी प्रकृति, रूप और विषयवस्तु के लिए उपयोगी माना जाता है। यह वैदिक साहित्य का मुख्य भाग है जिसमें पाँच प्रसिद्ध संहितायें उपस्थित हैं।
By Dr.Shashi Tiwari (Retd.), Sanskrit Department, Delhi University
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