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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 06 Sukta 084
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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निर्ऋतिमोचनम्।
१-४ भगः।निर्ऋतिः। १ भुरिग्जगती, २ त्रिपदार्षी बृहती, ३ जगती, ४ भुरिक् त्रिष्टुप् (जगती)
यस्या॑स्त आ॒सनि॑ घो॒रे जु॒होम्ये॒षां ब॒द्धाना॑मव॒सर्ज॑नाय॒ कम्।
भूमि॒रिति॑ त्वाभि॒प्रम॑न्वते॒ जना॒ निरृ॑ति॒रिति॑ त्वा॒हं परि॑ वेद स॒र्वतः॑ ॥१॥
भूते॑ ह॒विष्म॑ती भवै॒ष ते॑ भा॒गो यो अ॒स्मासु॑ ।
मु॒ञ्चेमान॒मूनेन॑सः॒ स्वाहा॑ ॥२॥
ए॒वो ष्व॑१स्मन्नि॑रृतेऽने॒हा त्वम॑य॒स्मया॒न् वि चृ॑ता बन्धपा॒शान्।
य॒मो मह्यं॒ पुन॒रित् त्वां द॑दाति॒ तस्मै॑ य॒माय॒ नमो॑ अस्तु मृ॒त्यवे॑ ॥३॥
अ॒य॒स्मये॑ द्रुप॒दे बे॑धिष इ॒हाभिहि॑तो मृ॒त्युभि॒र्ये स॒हस्र॑म्।
य॒मेन॒ त्वं पि॒तृभिः॑ संविदा॒न उ॑त्त॒मं नाक॒मधि॑ रोहये॒मम्॥४॥