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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 10 Sukta 031
A
A+
११ कवष ऐलूषः।विश्वे देवाः। त्रिष्टुप्।
आ नो॑ दे॒वाना॒मुप॑ वेतु॒ शंसो॒ विश्वे॑भिस्तु॒रैरव॑से॒ यज॑त्रः ।
तेभि॑र्व॒यं सु॑ष॒खायो॑ भवेम॒ तर॑न्तो॒ विश्वा॑ दुरि॒ता स्या॑म ॥१॥
परि॑ चि॒न्मर्तो॒ द्रवि॑णं ममन्यादृ॒तस्य॑ प॒था नम॒सा वि॑वासेत् ।
उ॒त स्वेन॒ क्रतु॑ना॒ सं व॑देत॒ श्रेयां॑सं॒ दक्षं॒ मन॑सा जगृभ्यात् ॥२॥
अधा॑यि धी॒तिरस॑सृग्र॒मंशा॑स्ती॒र्थे न द॒स्ममुप॑ य॒न्त्यूमा॑: ।
अ॒भ्या॑नश्म सुवि॒तस्य॑ शू॒षं नवे॑दसो अ॒मृता॑नामभूम ॥३॥
नित्य॑श्चाकन्या॒त्स्वप॑ति॒र्दमू॑ना॒ यस्मा॑ उ दे॒वः स॑वि॒ता ज॒जान॑ ।
भगो॑ वा॒ गोभि॑रर्य॒मेम॑नज्या॒त्सो अ॑स्मै॒ चारु॑श्छदयदु॒त स्या॑त् ॥४॥
इ॒यं सा भू॑या उ॒षसा॑मिव॒ क्षा यद्ध॑ क्षु॒मन्त॒: शव॑सा स॒माय॑न् ।
अ॒स्य स्तु॒तिं ज॑रि॒तुर्भिक्ष॑माणा॒ आ न॑: श॒ग्मास॒ उप॑ यन्तु॒ वाजा॑: ॥५॥
अ॒स्येदे॒षा सु॑म॒तिः प॑प्रथा॒नाऽभ॑वत्पू॒र्व्या भूम॑ना॒ गौः ।
अ॒स्य सनी॑ळा॒ असु॑रस्य॒ योनौ॑ समा॒न आ भर॑णे॒ बिभ्र॑माणाः ॥६॥
किं स्वि॒द्वनं॒ क उ॒ स वृ॒क्ष आ॑स॒ यतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः ।
सं॒त॒स्था॒ने अ॒जरे॑ इ॒तऊ॑ती॒ अहा॑नि पू॒र्वीरु॒षसो॑ जरन्त ॥७॥
नैताव॑दे॒ना प॒रो अ॒न्यद॑स्त्यु॒क्षा स द्यावा॑पृथि॒वी बि॑भर्ति ।
त्वचं॑ प॒वित्रं॑ कृणुत स्व॒धावा॒न्यदीं॒ सूर्यं॒ न ह॒रितो॒ वह॑न्ति ॥८॥
स्ते॒गो न क्षामत्ये॑ति पृ॒थ्वीं मिहं॒ न वातो॒ वि ह॑ वाति॒ भूम॑ ।
मि॒त्रो यत्र॒ वरु॑णो अ॒ज्यमा॑नो॒ऽग्निर्वने॒ न व्यसृ॑ष्ट॒ शोक॑म् ॥९॥
स्त॒रीर्यत्सूत॑ स॒द्यो अ॒ज्यमा॑ना॒ व्यथि॑रव्य॒थीः कृ॑णुत॒ स्वगो॑पा ।
पु॒त्रो यत्पूर्व॑: पि॒त्रोर्जनि॑ष्ट श॒म्यां गौर्ज॑गार॒ यद्ध॑ पृ॒च्छान् ॥१०॥
उ॒त कण्वं॑ नृ॒षद॑: पु॒त्रमा॑हुरु॒त श्या॒वो धन॒माद॑त्त वा॒जी ।
प्र कृ॒ष्णाय॒ रुश॑दपिन्व॒तोध॑ॠ॒तमत्र॒ नकि॑रस्मा अपीपेत् ॥११॥
आ नो॑ दे॒वाना॒मुप॑ वेतु॒ शंसो॒ विश्वे॑भिस्तु॒रैरव॑से॒ यज॑त्रः ।
तेभि॑र्व॒यं सु॑ष॒खायो॑ भवेम॒ तर॑न्तो॒ विश्वा॑ दुरि॒ता स्या॑म ॥१॥
परि॑ चि॒न्मर्तो॒ द्रवि॑णं ममन्यादृ॒तस्य॑ प॒था नम॒सा वि॑वासेत् ।
उ॒त स्वेन॒ क्रतु॑ना॒ सं व॑देत॒ श्रेयां॑सं॒ दक्षं॒ मन॑सा जगृभ्यात् ॥२॥
अधा॑यि धी॒तिरस॑सृग्र॒मंशा॑स्ती॒र्थे न द॒स्ममुप॑ य॒न्त्यूमा॑: ।
अ॒भ्या॑नश्म सुवि॒तस्य॑ शू॒षं नवे॑दसो अ॒मृता॑नामभूम ॥३॥
नित्य॑श्चाकन्या॒त्स्वप॑ति॒र्दमू॑ना॒ यस्मा॑ उ दे॒वः स॑वि॒ता ज॒जान॑ ।
भगो॑ वा॒ गोभि॑रर्य॒मेम॑नज्या॒त्सो अ॑स्मै॒ चारु॑श्छदयदु॒त स्या॑त् ॥४॥
इ॒यं सा भू॑या उ॒षसा॑मिव॒ क्षा यद्ध॑ क्षु॒मन्त॒: शव॑सा स॒माय॑न् ।
अ॒स्य स्तु॒तिं ज॑रि॒तुर्भिक्ष॑माणा॒ आ न॑: श॒ग्मास॒ उप॑ यन्तु॒ वाजा॑: ॥५॥
अ॒स्येदे॒षा सु॑म॒तिः प॑प्रथा॒नाऽभ॑वत्पू॒र्व्या भूम॑ना॒ गौः ।
अ॒स्य सनी॑ळा॒ असु॑रस्य॒ योनौ॑ समा॒न आ भर॑णे॒ बिभ्र॑माणाः ॥६॥
किं स्वि॒द्वनं॒ क उ॒ स वृ॒क्ष आ॑स॒ यतो॒ द्यावा॑पृथि॒वी नि॑ष्टत॒क्षुः ।
सं॒त॒स्था॒ने अ॒जरे॑ इ॒तऊ॑ती॒ अहा॑नि पू॒र्वीरु॒षसो॑ जरन्त ॥७॥
नैताव॑दे॒ना प॒रो अ॒न्यद॑स्त्यु॒क्षा स द्यावा॑पृथि॒वी बि॑भर्ति ।
त्वचं॑ प॒वित्रं॑ कृणुत स्व॒धावा॒न्यदीं॒ सूर्यं॒ न ह॒रितो॒ वह॑न्ति ॥८॥
स्ते॒गो न क्षामत्ये॑ति पृ॒थ्वीं मिहं॒ न वातो॒ वि ह॑ वाति॒ भूम॑ ।
मि॒त्रो यत्र॒ वरु॑णो अ॒ज्यमा॑नो॒ऽग्निर्वने॒ न व्यसृ॑ष्ट॒ शोक॑म् ॥९॥
स्त॒रीर्यत्सूत॑ स॒द्यो अ॒ज्यमा॑ना॒ व्यथि॑रव्य॒थीः कृ॑णुत॒ स्वगो॑पा ।
पु॒त्रो यत्पूर्व॑: पि॒त्रोर्जनि॑ष्ट श॒म्यां गौर्ज॑गार॒ यद्ध॑ पृ॒च्छान् ॥१०॥
उ॒त कण्वं॑ नृ॒षद॑: पु॒त्रमा॑हुरु॒त श्या॒वो धन॒माद॑त्त वा॒जी ।
प्र कृ॒ष्णाय॒ रुश॑दपिन्व॒तोध॑ॠ॒तमत्र॒ नकि॑रस्मा अपीपेत् ॥११॥