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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 10 Sukta 098
A
A+
१२ आर्ष्टिषेणो देवापिः (वृष्टिकामः) । देवाः। त्रिष्टुप्।
बृह॑स्पते॒ प्रति॑ मे दे॒वता॑मिहि मि॒त्रो वा॒ यद्वरु॑णो॒ वासि॑ पू॒षा ।
आ॒दि॒त्यैर्वा॒ यद्वसु॑भिर्म॒रुत्वा॒न्त्स प॒र्जन्यं॒ शंत॑नवे वृषाय ॥१॥
आ दे॒वो दू॒तो अ॑जि॒रश्चि॑कि॒त्वान्त्वद्दे॑वापे अ॒भि माम॑गच्छत् ।
प्र॒ती॒ची॒नः प्रति॒ मामा व॑वृत्स्व॒ दधा॑मि ते द्यु॒मतीं॒ वाच॑मा॒सन् ॥२॥
अ॒स्मे धे॑हि द्यु॒मतीं॒ वाच॑मा॒सन्बृह॑स्पते अनमी॒वामि॑षि॒राम् ।
यया॑ वृ॒ष्टिं शंत॑नवे॒ वना॑व दि॒वो द्र॒प्सो मधु॑माँ॒ आ वि॑वेश ॥३॥
आ नो॑ द्र॒प्सा मधु॑मन्तो विश॒न्त्विन्द्र॑ दे॒ह्यधि॑रथं स॒हस्र॑म् ।
नि षी॑द हो॒त्रमृ॑तु॒था य॑जस्व दे॒वान्दे॑वापे ह॒विषा॑ सपर्य ॥४॥
आ॒र्ष्टि॒षे॒णो हो॒त्रमृषि॑र्नि॒षीद॑न्दे॒वापि॑र्देवसुम॒तिं चि॑कि॒त्वान् ।
स उत्त॑रस्मा॒दध॑रं समु॒द्रम॒पो दि॒व्या अ॑सृजद्व॒र्ष्या॑ अ॒भि ॥५॥
अ॒स्मिन्त्स॑मु॒द्रे अध्युत्त॑रस्मि॒न्नापो॑ दे॒वेभि॒र्निवृ॑ता अतिष्ठन् ।
ता अ॑द्रवन्नार्ष्टिषे॒णेन॑ सृ॒ष्टा दे॒वापि॑ना॒ प्रेषि॑ता मृ॒क्षिणी॑षु ॥६॥
यद्दे॒वापि॒: शंत॑नवे पु॒रोहि॑तो हो॒त्राय॑ वृ॒तः कृ॒पय॒न्नदी॑धेत् ।
दे॒व॒श्रुतं॑ वृष्टि॒वनिं॒ ररा॑णो॒ बृह॒स्पति॒र्वाच॑मस्मा अयच्छत् ॥७॥
यं त्वा॑ दे॒वापि॑: शुशुचा॒नो अ॑ग्न आर्ष्टिषे॒णो म॑नु॒ष्य॑: समी॒धे ।
विश्वे॑भिर्दे॒वैर॑नुम॒द्यमा॑न॒: प्र प॒र्जन्य॑मीरया वृष्टि॒मन्त॑म् ॥८॥
त्वां पूर्व॒ ऋष॑यो गी॒र्भिरा॑य॒न्त्वाम॑ध्व॒रेषु॑ पुरुहूत॒ विश्वे॑ ।
स॒हस्रा॒ण्यधि॑रथान्य॒स्मे आ नो॑ य॒ज्ञं रो॑हिद॒श्वोप॑ याहि ॥९॥
ए॒तान्य॑ग्ने नव॒तिर्नव॒ त्वे आहु॑ता॒न्यधि॑रथा स॒हस्रा॑ ।
तेभि॑र्वर्धस्व त॒न्व॑: शूर पू॒र्वीर्दि॒वो नो॑ वृ॒ष्टिमि॑षि॒तो रि॑रीहि ॥१०॥
ए॒तान्य॑ग्ने नव॒तिं स॒हस्रा॒ सं प्र य॑च्छ॒ वृष्ण॒ इन्द्रा॑य भा॒गम् ।
वि॒द्वान्प॒थ ऋ॑तु॒शो दे॑व॒याना॒नप्यौ॑ला॒नं दि॒वि दे॒वेषु॑ धेहि ॥११॥
अग्ने॒ बाध॑स्व॒ वि मृधो॒ वि दु॒र्गहाऽपामी॑वा॒मप॒ रक्षां॑सि सेध ।
अ॒स्मात्स॑मु॒द्राद्बृ॑ह॒तो दि॒वो नो॒ऽपां भू॒मान॒मुप॑ नः सृजे॒ह ॥१२॥
बृह॑स्पते॒ प्रति॑ मे दे॒वता॑मिहि मि॒त्रो वा॒ यद्वरु॑णो॒ वासि॑ पू॒षा ।
आ॒दि॒त्यैर्वा॒ यद्वसु॑भिर्म॒रुत्वा॒न्त्स प॒र्जन्यं॒ शंत॑नवे वृषाय ॥१॥
आ दे॒वो दू॒तो अ॑जि॒रश्चि॑कि॒त्वान्त्वद्दे॑वापे अ॒भि माम॑गच्छत् ।
प्र॒ती॒ची॒नः प्रति॒ मामा व॑वृत्स्व॒ दधा॑मि ते द्यु॒मतीं॒ वाच॑मा॒सन् ॥२॥
अ॒स्मे धे॑हि द्यु॒मतीं॒ वाच॑मा॒सन्बृह॑स्पते अनमी॒वामि॑षि॒राम् ।
यया॑ वृ॒ष्टिं शंत॑नवे॒ वना॑व दि॒वो द्र॒प्सो मधु॑माँ॒ आ वि॑वेश ॥३॥
आ नो॑ द्र॒प्सा मधु॑मन्तो विश॒न्त्विन्द्र॑ दे॒ह्यधि॑रथं स॒हस्र॑म् ।
नि षी॑द हो॒त्रमृ॑तु॒था य॑जस्व दे॒वान्दे॑वापे ह॒विषा॑ सपर्य ॥४॥
आ॒र्ष्टि॒षे॒णो हो॒त्रमृषि॑र्नि॒षीद॑न्दे॒वापि॑र्देवसुम॒तिं चि॑कि॒त्वान् ।
स उत्त॑रस्मा॒दध॑रं समु॒द्रम॒पो दि॒व्या अ॑सृजद्व॒र्ष्या॑ अ॒भि ॥५॥
अ॒स्मिन्त्स॑मु॒द्रे अध्युत्त॑रस्मि॒न्नापो॑ दे॒वेभि॒र्निवृ॑ता अतिष्ठन् ।
ता अ॑द्रवन्नार्ष्टिषे॒णेन॑ सृ॒ष्टा दे॒वापि॑ना॒ प्रेषि॑ता मृ॒क्षिणी॑षु ॥६॥
यद्दे॒वापि॒: शंत॑नवे पु॒रोहि॑तो हो॒त्राय॑ वृ॒तः कृ॒पय॒न्नदी॑धेत् ।
दे॒व॒श्रुतं॑ वृष्टि॒वनिं॒ ररा॑णो॒ बृह॒स्पति॒र्वाच॑मस्मा अयच्छत् ॥७॥
यं त्वा॑ दे॒वापि॑: शुशुचा॒नो अ॑ग्न आर्ष्टिषे॒णो म॑नु॒ष्य॑: समी॒धे ।
विश्वे॑भिर्दे॒वैर॑नुम॒द्यमा॑न॒: प्र प॒र्जन्य॑मीरया वृष्टि॒मन्त॑म् ॥८॥
त्वां पूर्व॒ ऋष॑यो गी॒र्भिरा॑य॒न्त्वाम॑ध्व॒रेषु॑ पुरुहूत॒ विश्वे॑ ।
स॒हस्रा॒ण्यधि॑रथान्य॒स्मे आ नो॑ य॒ज्ञं रो॑हिद॒श्वोप॑ याहि ॥९॥
ए॒तान्य॑ग्ने नव॒तिर्नव॒ त्वे आहु॑ता॒न्यधि॑रथा स॒हस्रा॑ ।
तेभि॑र्वर्धस्व त॒न्व॑: शूर पू॒र्वीर्दि॒वो नो॑ वृ॒ष्टिमि॑षि॒तो रि॑रीहि ॥१०॥
ए॒तान्य॑ग्ने नव॒तिं स॒हस्रा॒ सं प्र य॑च्छ॒ वृष्ण॒ इन्द्रा॑य भा॒गम् ।
वि॒द्वान्प॒थ ऋ॑तु॒शो दे॑व॒याना॒नप्यौ॑ला॒नं दि॒वि दे॒वेषु॑ धेहि ॥११॥
अग्ने॒ बाध॑स्व॒ वि मृधो॒ वि दु॒र्गहाऽपामी॑वा॒मप॒ रक्षां॑सि सेध ।
अ॒स्मात्स॑मु॒द्राद्बृ॑ह॒तो दि॒वो नो॒ऽपां भू॒मान॒मुप॑ नः सृजे॒ह ॥१२॥