SELECT MANDALA
SELECT SUKTA OF MANDALA 10
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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 10 Sukta 122
A
A+
८ चित्रमहा वासिष्ठः । अग्निः। जगतीः १,५ त्रिष्टुप्।
वसुं॒ न चि॒त्रम॑हसं गृणीषे वा॒मं शेव॒मति॑थिमद्विषे॒ण्यम् ।
स रा॑सते शु॒रुधो॑ वि॒श्वधा॑यसो॒ऽग्निर्होता॑ गृ॒हप॑तिः सु॒वीर्य॑म् ॥१
जु॒षा॒णो अ॑ग्ने॒ प्रति॑ हर्य मे॒ वचो॒ विश्वा॑नि वि॒द्वान्व॒युना॑नि सुक्रतो ।
घृत॑निर्णि॒ग्ब्रह्म॑णे गा॒तुमेर॑य॒ तव॑ दे॒वा अ॑जनय॒न्ननु॑ व्र॒तम् ॥२॥
स॒प्त धामा॑नि परि॒यन्नम॑र्त्यो॒ दाश॑द्दा॒शुषे॑ सु॒कृते॑ मामहस्व ।
सु॒वीरे॑ण र॒यिणा॑ग्ने स्वा॒भुवा॒ यस्त॒ आन॑ट् स॒मिधा॒ तं जु॑षस्व ॥३॥
य॒ज्ञस्य॑ के॒तुं प्र॑थ॒मं पु॒रोहि॑तं ह॒विष्म॑न्त ईळते स॒प्त वा॒जिन॑म् ।
शृ॒ण्वन्त॑म॒ग्निं घृ॒तपृ॑ष्ठमु॒क्षणं॑ पृ॒णन्तं॑ दे॒वं पृ॑ण॒ते सु॒वीर्य॑म् ॥४॥
त्वं दू॒तः प्र॑थ॒मो वरे॑ण्य॒: स हू॒यमा॑नो अ॒मृता॑य मत्स्व ।
त्वां म॑र्जयन्म॒रुतो॑ दा॒शुषो॑ गृ॒हे त्वां स्तोमे॑भि॒र्भृग॑वो॒ वि रु॑रुचुः ॥५॥
इषं॑ दु॒हन्त्सु॒दुघां॑ वि॒श्वधा॑यसं यज्ञ॒प्रिये॒ यज॑मानाय सुक्रतो ।
अग्ने॑ घृ॒तस्नु॒स्त्रिॠ॒तानि॒ दीद्य॑द्व॒र्तिर्य॒ज्ञं प॑रि॒यन्त्सु॑क्रतूयसे ॥६॥
त्वामिद॒स्या उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु दू॒तं कृ॑ण्वा॒ना अ॑यजन्त॒ मानु॑षाः ।
त्वां दे॒वा म॑ह॒याय्या॑य वावृधु॒राज्य॑मग्ने निमृ॒जन्तो॑ अध्व॒रे ॥७॥
नि त्वा॒ वसि॑ष्ठा अह्वन्त वा॒जिनं॑ गृ॒णन्तो॑ अग्ने वि॒दथे॑षु वे॒धस॑: ।
रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानेषु धारय यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥८॥
वसुं॒ न चि॒त्रम॑हसं गृणीषे वा॒मं शेव॒मति॑थिमद्विषे॒ण्यम् ।
स रा॑सते शु॒रुधो॑ वि॒श्वधा॑यसो॒ऽग्निर्होता॑ गृ॒हप॑तिः सु॒वीर्य॑म् ॥१
जु॒षा॒णो अ॑ग्ने॒ प्रति॑ हर्य मे॒ वचो॒ विश्वा॑नि वि॒द्वान्व॒युना॑नि सुक्रतो ।
घृत॑निर्णि॒ग्ब्रह्म॑णे गा॒तुमेर॑य॒ तव॑ दे॒वा अ॑जनय॒न्ननु॑ व्र॒तम् ॥२॥
स॒प्त धामा॑नि परि॒यन्नम॑र्त्यो॒ दाश॑द्दा॒शुषे॑ सु॒कृते॑ मामहस्व ।
सु॒वीरे॑ण र॒यिणा॑ग्ने स्वा॒भुवा॒ यस्त॒ आन॑ट् स॒मिधा॒ तं जु॑षस्व ॥३॥
य॒ज्ञस्य॑ के॒तुं प्र॑थ॒मं पु॒रोहि॑तं ह॒विष्म॑न्त ईळते स॒प्त वा॒जिन॑म् ।
शृ॒ण्वन्त॑म॒ग्निं घृ॒तपृ॑ष्ठमु॒क्षणं॑ पृ॒णन्तं॑ दे॒वं पृ॑ण॒ते सु॒वीर्य॑म् ॥४॥
त्वं दू॒तः प्र॑थ॒मो वरे॑ण्य॒: स हू॒यमा॑नो अ॒मृता॑य मत्स्व ।
त्वां म॑र्जयन्म॒रुतो॑ दा॒शुषो॑ गृ॒हे त्वां स्तोमे॑भि॒र्भृग॑वो॒ वि रु॑रुचुः ॥५॥
इषं॑ दु॒हन्त्सु॒दुघां॑ वि॒श्वधा॑यसं यज्ञ॒प्रिये॒ यज॑मानाय सुक्रतो ।
अग्ने॑ घृ॒तस्नु॒स्त्रिॠ॒तानि॒ दीद्य॑द्व॒र्तिर्य॒ज्ञं प॑रि॒यन्त्सु॑क्रतूयसे ॥६॥
त्वामिद॒स्या उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टिषु दू॒तं कृ॑ण्वा॒ना अ॑यजन्त॒ मानु॑षाः ।
त्वां दे॒वा म॑ह॒याय्या॑य वावृधु॒राज्य॑मग्ने निमृ॒जन्तो॑ अध्व॒रे ॥७॥
नि त्वा॒ वसि॑ष्ठा अह्वन्त वा॒जिनं॑ गृ॒णन्तो॑ अग्ने वि॒दथे॑षु वे॒धस॑: ।
रा॒यस्पोषं॒ यज॑मानेषु धारय यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥८॥



 






