SELECT MANDALA
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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 10 Sukta 048
A
A+
११ वैकुण्ठ इन्द्रः। इन्द्रः। जगतीः, ७, १०-११ त्रिष्टुप्।
अ॒हं भु॑वं॒ वसु॑नः पू॒र्व्यस्पति॑र॒हं धना॑नि॒ सं ज॑यामि॒ शश्व॑तः ।
मां ह॑वन्ते पि॒तरं॒ न ज॒न्तवो॒ऽहं दा॒शुषे॒ वि भ॑जामि॒ भोज॑नम् ॥१॥
अ॒हमिन्द्रो॒ रोधो॒ वक्षो॒ अथ॑र्वणस्त्रि॒ताय॒ गा अ॑जनय॒महे॒रधि॑ ।
अ॒हं दस्यु॑भ्य॒: परि॑ नृ॒म्णमा द॑दे गो॒त्रा शिक्ष॑न्दधी॒चे मा॑त॒रिश्व॑ने ॥२॥
मह्यं॒ त्वष्टा॒ वज्र॑मतक्षदाय॒सं मयि॑ दे॒वासो॑ऽवृज॒न्नपि॒ क्रतु॑म् ।
ममानी॑कं॒ सूर्य॑स्येव दु॒ष्टरं॒ मामार्य॑न्ति कृ॒तेन॒ कर्त्वे॑न च ॥३॥
अ॒हमे॒तं ग॒व्यय॒मश्व्यं॑ प॒शुं पु॑री॒षिणं॒ साय॑केना हिर॒ण्यय॑म् ।
पु॒रू स॒हस्रा॒ नि शि॑शामि दा॒शुषे॒ यन्मा॒ सोमा॑स उ॒क्थिनो॒ अम॑न्दिषुः ॥४॥
अ॒हमिन्द्रो॒ न परा॑ जिग्य॒ इद्धनं॒ न मृ॒त्यवेऽव॑ तस्थे॒ कदा॑ च॒न ।
सोम॒मिन्मा॑ सु॒न्वन्तो॑ याचता॒ वसु॒ न मे॑ पूरवः स॒ख्ये रि॑षाथन ॥५॥
अ॒हमे॒ताञ्छाश्व॑सतो॒ द्वाद्वेन्द्रं॒ ये वज्रं॑ यु॒धयेऽकृ॑ण्वत ।
आ॒ह्वय॑मानाँ॒ अव॒ हन्म॑नाहनं दृ॒ळ्हा वद॒न्नन॑मस्युर्नम॒स्विन॑: ॥६॥
अ॒भी॒३दमेक॒मेको॑ अस्मि नि॒ष्षाळ॒भी द्वा किमु॒ त्रय॑: करन्ति ।
खले॒ न प॒र्षान्प्रति॑ हन्मि॒ भूरि॒ किं मा॑ निन्दन्ति॒ शत्र॑वोऽनि॒न्द्राः ॥७॥
अ॒हं गु॒ङ्गुभ्यो॑ अतिथि॒ग्वमिष्क॑र॒मिषं॒ न वृ॑त्र॒तुरं॑ वि॒क्षु धा॑रयम् ।
यत्प॑र्णय॒घ्न उ॒त वा॑ करञ्ज॒हे प्राहं म॒हे वृ॑त्र॒हत्ये॒ अशु॑श्रवि ॥८॥
प्र मे॒ नमी॑ सा॒प्य इ॒षे भु॒जे भू॒द्गवा॒मेषे॑ स॒ख्या कृ॑णुत द्वि॒ता ।
दि॒द्युं यद॑स्य समि॒थेषु॑ मं॒हय॒मादिदे॑नं॒ शंस्य॑मु॒क्थ्यं॑ करम् ॥९॥
प्र नेम॑स्मिन्ददृशे॒ सोमो॑ अ॒न्तर्गो॒पा नेम॑मा॒विर॒स्था कृ॑णोति ।
स ति॒ग्मशृ॑ङ्गं वृष॒भं युयु॑त्सन्द्रु॒हस्त॑स्थौ बहु॒ले ब॒द्धो अ॒न्तः ॥१०॥
आ॒दि॒त्यानां॒ वसू॑नां रु॒द्रिया॑णां दे॒वो दे॒वानां॒ न मि॑नामि॒ धाम॑ ।
ते मा॑ भ॒द्राय॒ शव॑से ततक्षु॒रप॑राजित॒मस्तृ॑त॒मषा॑ळ्हम् ॥११॥
अ॒हं भु॑वं॒ वसु॑नः पू॒र्व्यस्पति॑र॒हं धना॑नि॒ सं ज॑यामि॒ शश्व॑तः ।
मां ह॑वन्ते पि॒तरं॒ न ज॒न्तवो॒ऽहं दा॒शुषे॒ वि भ॑जामि॒ भोज॑नम् ॥१॥
अ॒हमिन्द्रो॒ रोधो॒ वक्षो॒ अथ॑र्वणस्त्रि॒ताय॒ गा अ॑जनय॒महे॒रधि॑ ।
अ॒हं दस्यु॑भ्य॒: परि॑ नृ॒म्णमा द॑दे गो॒त्रा शिक्ष॑न्दधी॒चे मा॑त॒रिश्व॑ने ॥२॥
मह्यं॒ त्वष्टा॒ वज्र॑मतक्षदाय॒सं मयि॑ दे॒वासो॑ऽवृज॒न्नपि॒ क्रतु॑म् ।
ममानी॑कं॒ सूर्य॑स्येव दु॒ष्टरं॒ मामार्य॑न्ति कृ॒तेन॒ कर्त्वे॑न च ॥३॥
अ॒हमे॒तं ग॒व्यय॒मश्व्यं॑ प॒शुं पु॑री॒षिणं॒ साय॑केना हिर॒ण्यय॑म् ।
पु॒रू स॒हस्रा॒ नि शि॑शामि दा॒शुषे॒ यन्मा॒ सोमा॑स उ॒क्थिनो॒ अम॑न्दिषुः ॥४॥
अ॒हमिन्द्रो॒ न परा॑ जिग्य॒ इद्धनं॒ न मृ॒त्यवेऽव॑ तस्थे॒ कदा॑ च॒न ।
सोम॒मिन्मा॑ सु॒न्वन्तो॑ याचता॒ वसु॒ न मे॑ पूरवः स॒ख्ये रि॑षाथन ॥५॥
अ॒हमे॒ताञ्छाश्व॑सतो॒ द्वाद्वेन्द्रं॒ ये वज्रं॑ यु॒धयेऽकृ॑ण्वत ।
आ॒ह्वय॑मानाँ॒ अव॒ हन्म॑नाहनं दृ॒ळ्हा वद॒न्नन॑मस्युर्नम॒स्विन॑: ॥६॥
अ॒भी॒३दमेक॒मेको॑ अस्मि नि॒ष्षाळ॒भी द्वा किमु॒ त्रय॑: करन्ति ।
खले॒ न प॒र्षान्प्रति॑ हन्मि॒ भूरि॒ किं मा॑ निन्दन्ति॒ शत्र॑वोऽनि॒न्द्राः ॥७॥
अ॒हं गु॒ङ्गुभ्यो॑ अतिथि॒ग्वमिष्क॑र॒मिषं॒ न वृ॑त्र॒तुरं॑ वि॒क्षु धा॑रयम् ।
यत्प॑र्णय॒घ्न उ॒त वा॑ करञ्ज॒हे प्राहं म॒हे वृ॑त्र॒हत्ये॒ अशु॑श्रवि ॥८॥
प्र मे॒ नमी॑ सा॒प्य इ॒षे भु॒जे भू॒द्गवा॒मेषे॑ स॒ख्या कृ॑णुत द्वि॒ता ।
दि॒द्युं यद॑स्य समि॒थेषु॑ मं॒हय॒मादिदे॑नं॒ शंस्य॑मु॒क्थ्यं॑ करम् ॥९॥
प्र नेम॑स्मिन्ददृशे॒ सोमो॑ अ॒न्तर्गो॒पा नेम॑मा॒विर॒स्था कृ॑णोति ।
स ति॒ग्मशृ॑ङ्गं वृष॒भं युयु॑त्सन्द्रु॒हस्त॑स्थौ बहु॒ले ब॒द्धो अ॒न्तः ॥१०॥
आ॒दि॒त्यानां॒ वसू॑नां रु॒द्रिया॑णां दे॒वो दे॒वानां॒ न मि॑नामि॒ धाम॑ ।
ते मा॑ भ॒द्राय॒ शव॑से ततक्षु॒रप॑राजित॒मस्तृ॑त॒मषा॑ळ्हम् ॥११॥