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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 095
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
त्रिक॑द्रुकेषु महि॒षो यवा॑शिरं तुवि॒शुष्म॑स्तृ॒पत् सोम॑मपिब॒द् विष्णु॑ना सु॒तं यथाव॑शत्।
स ईं॑ ममाद॒ महि॒ कर्म॒ कर्त॑वे म॒हामु॒रुं सैनं॑ सश्चद् दे॒वो दे॒वं स॒त्यमिन्द्रं॑ स॒त्य इन्दुः॑ ॥१॥
प्रो ष्व॑स्मै पुरोर॒थमिन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चत ।
अ॒भीके॑ चिदु लोक॒कृत् सं॒गे स॒मत्सु॑ वृत्र॒हास्माकं॑ बोधि चोदि॒ता
नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥२॥
त्वं सिन्धूं॒रवा॑सृजोऽध॒राचो॒ अह॒न्नहि॑म्।
अ॒श॒त्रुरि॑न्द्र जज्ञिषे॒ विश्वं॑ पुष्यसि॒ वार्यं॒ तं त्वा॒ परि॑ ष्वजामहे॒
नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥३॥
वि षु विश्वा॒ अरा॑तयो॒ऽर्यो न॑शन्त नो॒ धियः॑ ।
अस्ता॑सि॒ शत्र॑वे व॒धं यो न॑ इन्द्र॒ जिघां॑सति॒ या ते॑ रा॒तिर्द॒दिर्वसु॒
नभ॑न्तामन्य॒केषां॑ ज्या॒का अधि॒ धन्व॑सु ॥४॥