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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 089
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
अस्ते॑व॒ सु प्र॑त॒रं लाय॒मस्य॒न् भूष॑न्निव॒ प्र भ॑रा॒ स्तोम॑मस्मै ।
वा॒चा वि॑प्रास्तरत॒ वाच॑म॒र्यो नि रा॑मय जरितः॒ सोम॒ इन्द्र॑म्॥१॥
दोहे॑न॒ गामुप॑ शिक्षा॒ सखा॑यं॒ प्र बो॑धय जरितर्जा॒रमिन्द्र॑म्।
कोशं॒ न पू॒र्णं वसु॑ना॒ न्यृ॑ष्ट॒मा च्या॑वय मघ॒देया॑य॒ शूर॑म्॥२॥
किम॒ङ्ग त्वा॑ मघवन् भो॒जमा॑हुः शिशी॒हि मा॑ शिश॒यं त्वा॑ शृणोमि ।
अप्न॑स्वती॒ मम॒ धीर॑स्तु शक्र वसु॒विदं॒ भग॑मि॒न्द्रा भ॑रा नः ॥३॥
त्वां जना॑ ममस॒त्येष्वि॑न्द्र संतस्था॒ना वि ह्व॑यन्ते समी॒के।
अत्रा॒ युजं॑ कृणुते॒ यो ह॒विष्मा॒न्नासु॑न्वता स॒ख्यं व॑ष्टि॒ शूरः॑ ॥४॥
धनं॒ न स्प॒न्द्रं ब॑हु॒लं यो अ॑स्मै ती॒व्रान्त्सोमां॑ आसु॒नोति॒ प्रय॑स्वान्।
तस्मै॒ शत्रू॑न्त्सु॒तुका॑न् प्रा॒तरह्नो॒ नि स्वष्ट्रा॑न् यु॒वति॒ हन्ति॑ वृ॒त्रम्॥५॥
यस्मि॑न् व॒यं द॑धि॒मा शंस॒मिन्द्रे॒ यः शि॒श्राय॑ म॒घवा॒ काम॑म॒स्मे।
आ॒राच्चि॒त् सन् भ॑यतामस्य॒ शत्रु॒र्न्यऽस्मै द्यु॒म्ना जन्या॑ नमन्ताम्॥६॥
आ॒राच्छत्रु॒मप॑ बाधस्व दू॒रमु॒ग्रो यः शम्बः॑ पुरुहूत॒ तेन॑ ।
अ॒स्मे धे॑हि॒ यव॑म॒द् गोमदिन्द्र कृ॒धी धियं॑ जरि॒त्रे वाज॑रत्नाम्॥७॥
प्र यम॒न्तर्वृ॑षस॒वासो॒ अग्म॑न् ती॒व्राः सोमा॑ बहु॒लान्ता॑स॒ इन्द्र॑म्।
नाह॑ दा॒मानं॑ म॒घवा॒ नि यं॑स॒न् नि सु॑न्व॒ते व॑हति॒ भूरि॑ वा॒मम्॥८॥
उ॒त प्र॒हामति॑दीवा जयति कृ॒तमि॑व श्व॒घ्नी वि चि॑नोति काले।
यो दे॒वका॑मो॒ न धनं॑ रु॒णद्धि॒ समित् तं रा॒यः सृ॑जति स्व॒धाभिः॑ ॥९॥
गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे॑न वा॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वे॑ ।
व॒यं राज॑सु प्रथ॒मा धना॒न्यरि॑ष्टासो वृज॒नीभि॑र्जयेम ॥१०॥
बृह॒स्पति॑र्नः॒ परि॑ पातु प॒श्चादु॒तोत्त॑रस्मा॒दध॑रादघा॒योः ।
इन्द्रः॑ पु॒रस्ता॑दु॒त म॑ध्य॒तो नः॒ सखा॒ सखि॑भ्यो॒ वरी॑यः कृणोतु ॥११॥