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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 062
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
व॒यमु॒ त्वाम॑पूर्व्य स्थू॒रं न कच्चि॒द् भर॑न्तोऽव॒स्यवः॑ । वाजे॑ चि॒त्रं ह॑वामहे ॥१॥
उप॑ त्वा॒ कर्म॑न्नू॒तये॑ स नो॒ युवो॒ग्रश्च॑क्राम॒ यो धृ॒षत्।
त्वामिद्ध्य॑वि॒तारं॑ ववृ॒महे॒ सखा॑य इन्द्र सान॒सिम्॥२॥
यो न॑ इ॒दमि॑दं पु॒रा प्र वस्य॑ आनि॒नाय॒ तमु॑ व स्तुषे । सखा॑य॒ इन्द्र॑मू॒तये॑ ॥३॥
हर्य॑श्वं॒ सत्प॑तिं चर्षणी॒सहं॒ स हि ष्मा॒ यो अम॑न्दत ।
आ तु नः॒ स व॑यति॒ गव्य॒मश्व्यं॑ स्तो॒तृभ्यो॑ म॒घवा॑ श॒तम्॥४॥
इन्द्रा॑य॒ साम॑ गायत॒ विप्रा॑य बृह॒ते बृ॒हत्। ध॒र्म॒कृते॑ विप॒श्चिते॑ पन॒स्यवे॑ ॥५॥
त्वमि॑न्द्राभि॒भूर॑सि॒ त्वं सूर्य॑मरोचयः । वि॒श्वक॑र्मा वि॒श्वदे॑वो म॒हाँ अ॑सि ॥६॥
वि॒भ्राजं॒ ज्योति॑षा॒ स्व॑१रग॑च्छो रोच॒नं दि॒वः । दे॒वास्त॑ इन्द्र स॒ख्याय॑ येमिरे ॥७॥
तम्व॒भि प्र गा॑यत पुरुहू॒तं पु॑रुष्टु॒तम्। इन्द्रं॑ गी॒र्भिस्त॑वि॒षमा वि॑वासत ॥८॥
यस्य॑ द्वि॒बर्ह॑सो बृ॒हत् सहो॑ दा॒धार॒ रोद॑सी । गि॒रींरज्रां॑ अ॒पः स्वऽर्वृषत्व॒ना॥९॥
स रा॑जसि पुरुष्टुतं॒ एको॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नसे । इन्द्र॒ जैत्रा॑ श्रव॒स्याऽ च॒ यन्त॑वे ॥१०॥