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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 076
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
वने॒ न वा॒ यो न्य॑धायि चा॒क्रं छुचि॑र्वां॒ स्तोमो॑ भुरणावजीगः ।
यस्येदिन्द्रः॑ पुरु॒दिने॑षु॒ होता॑ नृ॒णां नर्यो॒ नृत॑मः क्ष॒पावा॑न्॥१॥
प्र ते॑ अ॒स्या उ॒षसः॒ प्राप॑रस्या नृ॒तौ स्या॑म॒ नृत॑मस्य नृ॒णाम्।
अनु॑ त्रि॒शोकः॑ श॒तमाव॑ह॒न्नॄन् कुत्से॑न॒ रथो॒ यो अस॑त् सस॒वान्॥२॥
कस्ते॒ मद॑ इन्द्र॒ रन्त्यो॑ भू॒द् दुरो॒ गिरो॑ अ॒भ्यु॑१ग्रो वि धा॑व ।
कद् वाहो॑ अ॒र्वागुप॑ मा मनी॒षा आ त्वा॑ शक्यामुप॒मं राधो॒ अन्नैः॑ ॥३॥
कदु॑ द्यु॒म्नमि॑न्द्र॒ त्वाव॑तो॒ नॄन् कया॑ धि॒या क॑रसे॒ कन्न॒ आग॑न्।
मि॒त्रो न स॒त्य उ॑रुगाय भृ॒त्या अन्ने॑ समस्य॒ यदस॑न् मनी॒षाः ॥४॥
प्रेर॑य॒ सूरो॒ अर्थं॒ न पा॒रं ये अ॑स्य॒ कामं॑ जनि॒धा इ॑व॒ ग्मन्।
गिर॑श्च॒ ये ते॑ तुविजात पू॒र्वीर्नर॑ इन्द्र प्रति॒शिक्ष॒न्त्यन्नैः॑ ॥५॥
मात्रे॒ नु ते॒ सुमि॑ते इन्द्र पू॒र्वी द्यौर्म॒ज्मना॑ पृथि॒वी काव्ये॑न ।
वरा॑य ते घृ॒तव॑न्तः सु॒तासः॒ स्वाद्न॑न् भवन्तु पी॒तये॒ मधू॑नि ॥६॥
आ मध्वो॑ अस्मा असिच॒न्नम॑त्र॒मिन्द्रा॑य पू॒र्णं स हि स॒त्यरा॑धाः ।
स वा॑वृधे॒ वरि॑म॒न्ना पृ॑थि॒व्या अ॒भि क्रत्वा॒ नर्यः॒ पौंस्यै॑श्च ॥७॥
व्या॑न॒लिन्द्रः॒ पृत॑नाः॒ स्वोजा॒ आस्मै॑ यतन्ते स॒ख्याय॑ पू॒र्वीः ।
आ स्मा॒ रथं॒ न पृत॑नासु तिष्ठ॒ यं भ॒द्रया॑ सुम॒त्या चो॒दया॑से ॥८॥