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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 015
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
१-६गोतमः। इन्द्रः। त्रिष्टुप्।
प्र मंहि॑ष्ठाय बृह॒ते बृ॒हद्र॑ये स॒त्यशु॑ष्माय त॒वसे॑ म॒तिं भ॑रे ।
अ॒पामि॑व प्रव॒णे यस्य॑ दु॒र्धरं॒ राधो॑ वि॒श्वायु॒ शव॑से॒ अपा॑वृतम्॥१॥
अध॑ ते॒ विश्व॒मनु॑ हासदि॒ष्टय॒ आपो॑ नि॒म्नेव॒ सव॑ना ह॒विष्म॑तः ।
यत् पर्व॑ते॒ न स॒मशी॑त हर्य॒त इन्द्र॑स्य॒ वज्रः॒ श्नथि॑ता हिर॒ण्ययः॑ ॥२॥
अ॒स्मै भी॒माय॒ नम॑सा॒ सम॑ध्व॒र उषो॒ न शु॑भ्र॒ आ भ॑रा॒ पनी॑यसे ।
यस्य॒ धाम॒ श्रव॑से॒ नामे॑न्द्रि॒यं ज्योति॒रका॑रि ह॒रितो॒ नाय॑से ॥३॥
इ॒मे त॑ इन्द्र॒ ते व॒यं पु॑रुष्टुत॒ ये त्वा॒रभ्य॒ चरा॑मसि प्रभूवसो ।
न॒हि त्वद॒न्यो गि॑र्वणो॒ गिरः॒ सध॑त् क्षो॒णीरि॑व॒ प्रति॑ नो हर्य॒ तद् वचः॑ ॥४॥
भूरि॑ त इन्द्र वी॒र्यं॑१ तव॑ स्मस्य॒स्य स्तो॒तुर्म॑घव॒न् काम॒मा पृ॑ण ।
अनु॑ ते॒ द्यौर्बृ॑ह॒ती वी॒र्यं मम इ॒यं च॑ ते पृथि॒वी ने॑म॒ ओज॑से ॥५॥
त्वं तमि॑न्द्र॒ पर्व॑तं म॒हामु॒रुं वज्रे॑ण वज्रिन् पर्व॒शश्च॑कर्तिथ ।
अवा॑सृजो॒ निवृ॑ताः॒ सर्त॒वा अ॒पः स॒त्रा विश्वं॑ दधिषे॒ केव॑लं॒ सहः॑ ॥६॥