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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 056
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
इन्द्रो॒ मदा॑य वावृधे॒ शव॑से वृत्र॒हा नृभिः॑ ।
तमिन्म॒हत्स्वा॒जिषू॒तेमर्भे॑ हवामहे॒ स वाजे॑षु॒ प्र नो॑ऽविषत्॥१॥
असि॒ हि वी॑र॒ सेन्योऽसि॒ भूरि॑ पराद॒दिः ।
असि॑ द॒भ्रस्य॑ चिद् वृ॒धो यज॑मानाय शिक्षसि सुन्व॒ते भूरि॑ ते॒ वसु॑ ॥२॥
यदु॒दीर॑त आ॒जयो॑ धृ॒ष्णवे॑ धीयते॒ धना॑ ।
यु॒क्ष्वा म॑द॒च्युता॒ हरी॒ कं हनः॒ कं वसौ॑ दधो॒ऽस्मां इ॑न्द्र॒ वसौ॑ दधः ॥३॥
मदे॑मदे॒ हि नो॑ द॒दिर्यू॒था गवा॑मृजु॒क्रतुः॑ ।
सं गृ॑भाय पु॒रु श॒तोभ॑याह॒स्त्या वसु॑ शिशी॒हि रा॒य आ भ॑र ॥४॥
मा॒दय॑स्व सु॒ते सचा॒ शव॑से शूर॒ राध॑से ।
वि॒द्मा हि त्वा॑ पुरू॒वसु॒मुप॒ कामा॑न्त्ससृ॒ज्महेऽथा॑ नोऽवि॒ता भ॑व ॥५॥
ए॒ते त॑ इन्द्र ज॒न्तवो॒ विश्वं॑ पुष्यन्ति॒ वार्य॑म्।
अ॒न्तर्हि ख्यो जना॑नाम॒र्यो वेदो॒ अदा॑शुषां॒ तेषां॑ नो॒ वेद॒ आ भ॑र ॥६॥