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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 016
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
१-१२ अयास्यः। बृहस्पतिः। त्रिष्टुप्।
उ॒द॒प्रुतो॒ न वयो॒ रक्ष॑माणा॒ वाव॑दतो अ॒भ्रिय॑स्येव॒ घोषाः॑ ।
गि॒रि॒भ्रजो॒ नोर्मयो॒ मद॑न्तो॒ बृह॒स्पति॑म॒भ्य॑१र्का अ॑नावन्॥१॥
सं गोभि॑रङ्गिर॒सो नक्ष॑माणो॒ भग॑ इ॒वेद॑र्य॒मणं॑ निनाय ।
जने॑ मि॒त्रो न दम्प॑ती अनक्ति॒ बृह॑स्पते वा॒जया॒शूंरि॑वा॒जौ॥२॥
सा॒ध्व॒र्या अ॑ति॒थिनी॑रिषि॒रा स्पा॒र्हाः सु॒वर्णा॑ अनव॒द्यरू॑पाः ।
बृह॒स्पतिः॒ पर्व॑तेभ्यो वि॒तूर्या॒ निर्गा ऊ॑पे॒ यव॑मिव स्थि॒विभ्यः॑ ॥३॥
आ॒प्रु॒षा॒यन् मधु॑न ऋ॒तस्य॒ योनि॑मवक्षि॒पन्न॒र्क उ॒ल्कामि॑व॒ द्योः ।
बृह॒स्पति॑रु॒द्धर॒न्नश्म॑नो॒ गा भूम्या॑ उ॒द्नेव॒ वि त्वचं॑ बिभेद ॥४॥
अप॒ ज्योति॑षा॒ तमो॑ अ॒न्तरि॑क्षादु॒द्नः शीपा॑लमिव॒ वात॑ आजत्।
बृह॒स्पति॑रनु॒मृश्या॑ व॒लस्या॒भ्रमि॑व॒ वात॒ आ च॑क्र॒ आ गाः ॥५॥
य॒दा व॒लस्य॒ पीय॑तो॒ जसुं॒ भेद् बृह॒स्पति॑रग्नि॒तपो॑भिर॒र्कैः ।
द॒द्भिर्न जि॒ह्वा परि॑विष्ट॒माद॑दा॒विर्नि॒धींर॑कृणोदु॒स्रिया॑णाम्॥६॥
बृह॒स्पति॒रम॑त॒ हि त्यदा॑सां॒ नाम॑ स्व॒रीणां॒ सद॑ने॒ गुहा॒ यत्।
आ॒ण्डेव॑ भि॒त्वा श॑कु॒नस्य॒ गर्भ॒मुदु॒स्रियाः॒ पर्व॑तस्य॒ त्मना॑जत्॥७॥
अश्नापि॑नद्धं॒ मधु॒ पर्य॑पश्य॒न्मत्स्यं॒ न दी॒न उ॒दनि॑ क्षि॒यन्त॑म्।
निष्टज्ज॑भार चम॒सं न वृ॒क्षाद् बृह॒स्पति॑र्विर॒वेणा॑ वि॒कृत्य॑ ॥८॥
सोषाम॑विन्द॒त् स स्वः॑१ सो अ॒ग्निं सो अ॒र्केण॒ वि ब॑बाधे॒ तमां॑सि ।
बृह॒स्पति॒र्गोव॑पुषो व॒लस्य॒ निर्म॒ज्जानं॒ न पर्व॑णो जभार ॥९॥
हि॒मेव॑ प॒र्णा मु॑षि॒ता वना॑नि॒ बृह॒स्पति॑नाकृपयद् व॒लो गाः ।
अ॒ना॒नु॒कृ॒त्यम॑पु॒नश्च॑कार॒ यात् सूर्या॒मासा॑ मि॒थ उ॒च्चरा॑तः ॥१०॥
अ॒भि श्या॒वं न कृश॑नेभि॒रश्वं॒ नक्ष॑त्रेभिः पि॒तरो॒ द्याम॑पिंशन्।
रात्र्यां॒ तमो॒ अद॑धु॒र्ज्योति॒रह॒न् बृह॒स्पति॑र्भि॒नदद्रिं॑ वि॒दद् गाः ॥११॥
इ॒दम॑कर्म॒ नमो॑ अभ्रि॒याय॒ यः पू॒र्वीरन्वा॒नोन॑वीति ।
बृह॒स्पतिः॒ स हि गोभिः॒ सो अश्वैः॒ स वी॒रेभिः॒ स नृभि॑र्नो॒ वयो॑ धात्॥१२॥