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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 085
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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मा चि॑द॒न्यद् वि शं॑सत॒ सखा॑यो॒ मा रि॑षण्यत ।
इन्द्र॒मित् स्तो॑ता॒ वृष॑णं॒ सचा॑ सु॒ते मुहु॑रु॒क्था च॑ शंसत ॥१॥
अ॒व॒क्र॒क्षिणं॑ वृष॒भं य॑था॒जुरं॒ गां न च॑र्षणी॒सह॑म्।
वि॒द्वेष॑णं सं॒वन॑नोभयंक॒रं मंहि॑ष्ठमुभया॒विन॑म्॥२॥
यच्चि॒द्धि त्वा॒ जना॑ इ॒मे नाना॒ हव॑न्त ऊ॒तये॑ ।
अ॒स्माकं॒ ब्रह्मे॒दमि॑न्द्र भूतु॒ तेहा॒ विश्वा॑ च॒ वर्ध॑नम्॥३॥
वि त॑र्तूर्यन्ते मघवन् विप॒श्चितो॒ऽर्यो विपो॒ जना॑नाम्।
उप॑ क्रमस्व पुरु॒रूप॒मा भ॑र॒ वाजं॒ नेदि॑ष्ठमू॒तये॑ ॥४॥