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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 077
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
आ स॒त्यो या॑तु म॒घवां॑ ऋजी॒षी द्रव॑न्त्वस्य॒ हर॑य॒ उप॑ नः ।
तस्मा॒ इदन्धः॑ सुषुमा सु॒दक्ष॑मि॒हाभि॑पि॒त्वं क॑रते गृणा॒नः ॥१॥
अव॑ स्य शू॒राध्व॑नो॒ नान्ते॒ऽस्मिन् नो॑ अ॒द्य सव॑ने म॒न्दध्यै॑ ।
शंसा॑त्यु॒क्थमु॒शने॑व वे॒धाश्चि॑कि॒तुषे॑ असु॒र्याऽय मन्म॑ ॥२॥
क॒विर्न नि॒ण्यं वि॒दथा॑नि॒ साध॒न् वृषा॒ यत् सेकं॑ विपिपा॒नो अर्चा॑त्।
दि॒व इ॒त्था जी॑जनत् स॒प्त का॒रूनह्ना॑ चिच्चक्रुर्व॒युना॑ गृ॒णन्तः॑ ॥३॥
स्व॑१र्यद् वेदि॑ सु॒दृशी॑कम॒र्कैर्महि॒ ज्योती॑ रुरुचु॒र्यद्ध॒ वस्तोः॑ ।
अ॒न्धा तमां॑सि॒ दुधि॑ता वि॒चक्षे॒ नृभ्य॑श्चकार॒ नृत॑मो अ॒भिष्टौ॑ ॥४॥
व॒व॒क्ष इन्द्रो॒ अमि॑तमृजि॒ष्यु॑१भे आ प॑प्रौ॒ रोद॑सी महि॒त्वा।
अत॑श्चिदस्य महि॒मा वि रे॑च्य॒भि यो विश्वा॒ भुव॑ना ब॒भूव॑ ॥५॥
विश्वा॑नि श॒क्रो नर्या॑णि वि॒द्वान॒पो रि॑रेच॒ सखि॑भि॒र्निका॑मैः ।
अश्मा॑नं चि॒द् ये बि॑भि॒दुर्वचो॑भिर्व्र॒जं गोम॑न्तमु॒शिजो॒ वि व॑व्रुः ॥६॥
अ॒पो वृ॒त्रं व॑व्रि॒वांसं॒ परा॑ह॒न् प्राव॑त् ते॒ वज्रं॑ पृथि॒वी सचे॑ताः ।
प्रार्णां॑सि समु॒द्रिया॑ण्यैनोः॒ पति॒र्भवं॒ छव॑सा शूर धृष्णो ॥७॥
अ॒पो यदद्रिं॑ पुरुहूत॒ दर्द॑रा॒विर्भु॑वत् स॒रमा॑ पू॒र्व्यं ते॑ ।
स नो॑ ने॒ता वाज॒मा द॑र्षि॒ भूरिं॑ गो॒त्रा रु॒जन्नङ्गि॑रोभिर्गृणा॒नः ॥८॥