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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 055
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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तमिन्द्रं॑ जोहवीमि म॒घवा॑नमु॒ग्रं स॒त्रा दधा॑न॒मप्र॑तिष्कुतं॒ शवांसि ।
मंहि॑ष्ठो गी॒र्भिरा च॑ य॒ज्ञियो॑ व॒वर्त॑द् रा॒ये नो॒ विश्वा॑ सु॒पथा॑ कृणोतु व॒ज्री॥१॥
या इ॑न्द्र॒ भुज॒ आभ॑रः॒ स्वर्वां॒ असु॑रेभ्यः ।
स्तो॒तार॒मिन्म॑घवन्नस्य वर्धय॒ ये च॒ त्वे वृ॒क्तब॑र्हिषः ॥२॥
यमि॑न्द्र दधि॒षे त्वमश्वं॒ गां भा॒गमव्य॑यम्।
यज॑माने सुन्व॒ति दक्षि॑णावति॒ तस्मि॒न् तं धे॑हि॒ मा प॒णौ॥३॥



 




