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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 035
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
अ॒स्मा इदु॒ प्र त॒वसे॑ तु॒राय॒ प्रयो॒ न ह॑र्मि॒ स्तोमं॒ माहि॑नाय ।
ऋची॑षमा॒याध्रि॑गव॒ ओह॒मिन्द्रा॑य॒ ब्रह्मा॑णि रा॒तत॑मा ॥१॥
अ॒स्मा इदु॒ प्रय॑ इव॒ प्र यं॑सि॒ भरा॑म्याङ्गू॒षं बाधे॑ सुवृ॒क्ति।
इन्द्रा॑य हृ॒दा मन॑सा मनी॒षा प्र॒त्नाय॒ पत्ये॒ धियो॑ मर्जयन्त ॥२॥
अ॒स्मा इदु॒ त्यमु॑प॒मं स्व॒र्षां भरा॑म्याङ्गू॒षमा॒स्येऽन ।
मंहि॑ष्ठ॒मच्छो॑क्तिभिर्मती॒नां सु॑वृ॒क्तिभिः॑ सू॒रिं वा॑वृ॒धध्यै॑ ॥३॥
अ॒स्मा इदु॒ स्तोमं॒ सं हि॑नोमि॒ रथं॒ न तष्टे॑व॒ तत्सि॑नाय ।
गिर॑श्च॒ गिर्वा॑हसे सुवृ॒क्तीन्द्रा॑य विश्वमि॒न्वं मेधि॑राय ॥४॥
अ॒स्मा इदु॒ सप्ति॑मिव श्रव॒स्येन्द्रा॑या॒र्कं जु॒ह्वा॒३सम॑ञ्जे ।
वी॒रं दा॒नौक॑सं व॒न्दध्यै॑ पु॒रां गू॒र्तश्र॑वसं द॒र्माण॑म्॥५॥
अ॒स्मा इदु॒ त्वष्टा॑ तक्ष॒द् वज्रं॒ स्वप॑स्तमं स्व॒र्यं॑१ रणा॑य ।
वृ॒त्रस्य॑ चिद् वि॒दद् येन॒ मर्म॑ तु॒जन्नीशा॑नस्तुज॒ता कि॑ये॒धाः ॥६॥
अ॒स्येदु॑ मा॒तुः सव॑नेषु स॒द्यो म॒हः पि॒तुं प॑पि॒वां चार्वन्ना॑ ।
मु॒षा॒यद् विष्णुः॑ पच॒तं सही॑या॒न् विध्य॑द् वरा॒हं ति॒रो अद्रि॒मस्ता॑ ॥७॥
अ॒स्मा इदु॒ ग्नाश्चि॑द् दे॒वप॑त्नी॒रिन्द्रा॑या॒र्कम॑हि॒हत्य॑ ऊवुः ।
परि॒ द्यावा॑पृथि॒वी ज॑भ्र उ॒र्वी नास्य॒ ते म॑हि॒मानं॒ परि॑ ष्टः ॥८॥
अ॒स्ये दे॒व प्र रि॑रिचे महि॒त्वं दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्य॒न्तरि॑क्षात्।
स्व॒रालिन्द्रो॒ दम॒ आ वि॒श्वगू॑र्तः स्व॒रिरम॑त्रो ववक्षे॒ रणा॑य ॥९॥
अ॒स्येदे॒व शव॑सा शु॒षन्तं॒ वि वृ॑श्च॒द् वज्रे॑ण वृ॒त्रमिन्द्रः॑ ।
गा न व्रा॒णा अ॒वनी॑रमुञ्चद॒भि श्रवो॑ दा॒वने॒ सचे॑ताः ॥१०॥
अ॒स्येदु॑ त्वे॒षसा॑ रन्त॒ सिन्ध॑वः॒ परि॒ यद् वज्रे॑ण सी॒मय॑च्छत्।
ई॒शा॒न॒कृद् दा॒शुषे॑ दश॒स्यन् तु॒र्वीत॑ये गा॒धं तु॒र्वणिः॑ कः ॥११॥
अ॒स्मा इदु॒ प्र भ॑रा॒ तूतु॑जानो वृ॒त्राय॒ वज्र॒मीशा॑नः किये॒धाः ।
गोर्न पर्व॒ वि र॑दा तिर॒श्चेष्य॒न्नर्णां॑स्य॒पां च॒रध्यै॑ ॥१२॥
अ॒स्येदु॒ प्र ब्रू॑हि पू॒र्व्याणि॑ तु॒रस्य॒ कर्मा॑णि॒ नव्य॑ उ॒क्थैः ।
यु॒धे यदि॑ष्णा॒न आयु॑धान्यृघा॒यमा॑णो निरि॒णाति॒ शत्रू॑न्॥१३॥
अ॒स्येदु॑ भि॒या गि॒रय॑श्च दृ॒ल्हा द्यावा॑ च॒ भूमा॑ ज॒नुष॑स्तुजेते ।
उपो॑ वे॒नस्य॒ जोगु॑वान ओ॒णिं स॒द्यो भु॑वद् वी॒र्याय नो॒धाः ॥१४॥
अ॒स्मा इदु॒ त्यदनु॑ दाय्येषा॒मेको॒ यद् वव्ने भूरे॒रीशा॑नः ।
प्रैत॑शं॒ सूर्ये॑ पस्पृधा॒नं सौव॑श्व्ये॒ सुष्वि॑माव॒दिन्द्रः॑ ॥१५॥
ए॒वा ते॑ हारियोजना सुवृ॒क्तीन्द्र॒ ब्रह्मा॑णि॒ गोत॑मासो अक्रन्।
ऐषु॑ वि॒श्वपे॑शसं॒ धियं॑ धाः प्रा॒तर्म॒क्षू धि॒याव॑सु॒र्जगम्यात्॥१६॥