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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 087
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
अध्व॑र्यवोऽरु॒णं दु॒ग्धमं॒शुं जु॒होत॑न वृष॒भाय॑ क्षिती॒नाम्।
गौ॒राद् वेदी॑यां अव॒पान॒मिन्द्रो॑ वि॒श्वाहेद् या॑ति सु॒तसो॑ममि॒च्छन्॥१॥
यद् द॑धि॒षे प्र॒दिवि॒ चार्वन्नं॑ दि॒वेदि॑वे पी॒तिमिद॑स्य वक्षि ।
उ॒त हृ॒दोत मन॑सा जुषा॒ण उ॒शन्नि॑न्द्र॒ प्रस्थि॑तान् पाहि॒ सोमा॑न्॥२॥
ज॒ज्ञा॒नः सोमं॒ सह॑से पपाथ॒ प्र ते॑ मा॒ता म॑हि॒मान॑मुवाच ।
एन्द्र॑ पप्राथो॒र्व॑१न्तरि॑क्षं यु॒धा दे॒वेभ्यो॒ वरि॑वश्चकर्थ ॥३॥
यद् यो॒धया॑ मह॒तो मन्य॑माना॒न् साक्षा॑म॒ तान् बा॒हुभिः॒ शाश॑दानान्।
यद् वा॒ नृभि॒र्वृत॑ इन्द्राभि॒युध्या॒स्तं त्वया॒जिं सौ॑श्रव॒सं ज॑येम ॥४॥
प्रेन्द्र॑स्य वोचं प्रथ॒मा कृ॒तानि॒ प्र नूत॑ना म॒घवा॒ या च॒कार॑ ।
य॒देददे॑वी॒रस॑हिष्ट मा॒या अथा॑भव॒त् केव॑लः॒ सोमो॑ अस्य ॥५॥
तवे॒दं विश्व॑म॒भितः॑ पश॒व्यं॑१ यत् पश्य॑सि॒ चक्ष॑सा॒ सूर्य॑स्य ।
गवा॑मसि॒ गोप॑ति॒रेक॑ इन्द्र भक्षी॒महि॑ ते॒ प्रय॑तस्य॒ वस्वः॑ ॥६॥
बृह॑स्पते यु॒वमिन्द्र॑श्च॒ वस्वो॑ दि॒व्यस्ये॑शाथे उ॒त पार्थि॑वस्य ।
ध॒त्तं र॒यिं स्तु॑व॒ते की॒रये॑ चिद् यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥७॥