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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 057
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
सु॒रू॒प॒कृ॒त्नुमू॒तये॑ सु॒दुघा॑मिव गो॒दुहे॑ ।जु॒हूमसि॒ द्यवि॑द्यवि ॥१॥
उप॑ नः॒ सव॒ना ग॑हि॒ सोम॑स्य सोमपाः पिब । गो॒दा इद् रे॒वतो॒ मदः॑ ॥२॥
अथा॑ ते॒ अन्त॑मानां वि॒द्याम॑ सुमती॒नाम्। मा नो॒ अति॑ ख्य॒ आ ग॑हि ॥३॥
शु॒ष्मिन्त॑मं न ऊ॒तये॑ द्यु॒म्निनं॑ पाहि॒ जागृ॑विम्। इन्द्र॒ सोमं॑ शतक्रतो ॥४॥
इ॒न्द्रि॒याणि॑ शतक्रतो॒ या ते॒ जने॑षु प॒ञ्चसु॑ । इन्द्र॒ तानि॑ त॒ आ वृ॑णे ॥५॥
अग॑न्निन्द्र॒ श्रवो॑ बृ॒हद् द्यु॒म्नं द॑धिष्व दु॒ष्टर॑म्। उत् ते॒ शुष्मं॑ तिरामसि ॥६॥
अ॒र्वा॒वतो॑ न॒ आ ग॒ह्यथो॑ शक्र परा॒वतः॑ । उ॒ लो॒को यस्ते॑ अद्रिव॒ इन्द्रे॒ह तत॒ आ ग॑हि ॥७॥
इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग म॒हद् भ॒यम॒भी षदप॑ चुच्यवत्। स हि स्थि॒रो विच॑र्षणिः ॥८॥
इन्द्र॑श्च मृ॒लया॑ति नो॒ न नः॑ प॒श्चाद॒घं न॑शत्। भ॒द्रं भ॑वाति नः पु॒रः ॥९॥
इन्द्र॒ आशा॑भ्य॒स्परि॒ सर्वा॑भ्यो॒ अभ॑यं करत्। जेता॒ शत्रू॒न् विच॑र्षणिः ॥१०॥
क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद् वयो॑ दधे ।
अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥११॥
दा॒ना मृ॒गो न वा॑र॒णः पु॑रु॒त्रा च॒रथं॑ दधे ।
नकि॑ष्ट्वा॒ नि य॑म॒दा सु॒ते ग॑मो म॒हांश्च॑र॒स्योज॑सा ॥१२॥
य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृत स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः ।
यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत्॥१३॥
व॒यं घ॑ त्वा सु॒ताव॑न्त॒ आपो॒ न वृ॒क्तब॑र्हिषः ।
प॒वित्र॑स्य प्र॒स्रव॑णेषु वृत्रह॒न् परि॑ स्तो॒तार॑ आसते ॥१४॥
स्वर॑न्ति त्वा सु॒ते नरो॒ वसो॑ निरे॒क उ॒क्थिनः॑ ।
क॒दा सु॒तं तृ॑षा॒ण ओक॒ आ ग॑म॒ इन्द्र॑ स्व॒ब्दीव॒ वंस॑गः ॥१५॥
कण्वे॑भिर्धृष्ण॒वा धृ॒षद् वाजं॑ दर्षि सह॒स्रिण॑म्।
पि॒शङ्ग॑रूपं मघवन् विचर्षणे म॒क्षू गोम॑न्तमीमहे ॥१६॥