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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 036
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
य एक॒ इद्धव्य॑श्चर्षणी॒नामिन्द्रं॒ तं गी॒र्भिर॒भ्यर्च आ॒भिः ।
यः पत्य॑ते वृष॒भो वृष्ण्या॑वान्त्स॒त्यः सत्वा॑ पुरुमा॒यः सह॑स्वान्॥१॥
तमु॑ नः॒ पूर्वे॑ पि॒तरो॒ नव॑ग्वाः स॒प्त विप्रा॑सो अ॒भि वा॒जय॑न्तः ।
न॒क्ष॒द्दा॒भं ततु॑रिं पर्वते॒ष्ठामद्रो॑घवाचं म॒तिभिः॒ शवि॑ष्ठम्॥२॥
तमी॑महे॒ इन्द्र॑मस्य रा॒यः पु॑रु॒वीर॑स्य नृ॒वतः॑ पुरु॒क्षोः ।
यो अस्कृ॑धोयुर॒जरः॒ स्वऽर्वा॒न् तमा भ॑र हरिवो माद॒यध्यै॑ ॥३॥
तन्नो॒ वि वो॑चो॒ यदि॑ ते पु॒रा चि॑ज्जरि॒तार॑ आन॒शुः सु॒म्नमि॑न्द्र ।
कस्ते॑ भा॒गः किं वयो॑ दुध्र खिद्वः पुरु॑हूत पुरूवसोऽसुर॒घ्नः ॥४॥
तं पृ॒च्छन्ती॒ वज्र॑हस्तं रथे॒ष्ठामिन्द्रं॒ वेपी॒ वक्व॑री॒ यस्य॒ नू गीः ।
तु॒वि॒ग्रा॒भं तु॑विकू॒र्मिं र॑भो॒दां गा॒तुमि॑षे॒ नक्ष॑ते॒ तुम्र॒मच्छ॑ ॥५॥
अ॒या ह॒ त्यं मा॒यया॑ वावृधा॒नं म॑नो॒जुवा॑ स्वतवः॒ पर्व॑तेन ।
अच्यु॑ता चिद् वीलि॒ता स्वो॑जो रु॒जो वि दृ॒ह्ला धृ॑ष॒ता वि॑रप्शिन्॥६॥
तं वो॑ धि॒या नव्य॑स्या॒ शवि॑ष्ठं प्र॒त्नं प्र॑त्न॒वत् प॑रितंस॒यध्यै॑ ।
स नो॑ वक्षदनिमा॒नः सु॒वह्मेन्द्रो॒ विश्वा॒न्यति॑ दु॒र्गहा॑णि ॥७॥
आ जना॑य॒ द्रुह्व॑णे॒ पार्थि॑वानि दि॒व्यानि॑ दीपयो॒ऽन्तरि॑क्षा ।
तपा॑ वृषन् वि॒श्वतः॑ शो॒चिषा॒ तान् ब्र॑ह्म॒द्विषे॑ शोचय॒ क्षाम॒पश्च॑ ॥८॥
भुवो॒ जन॑स्य दि॒व्यस्य॒ राजा॒ पार्थि॑वस्य॒ जग॑तस्त्वेषसंदृक्।
धि॒ष्व वज्रं॒ दक्षि॑ण इन्द्र॒ हस्ते॒ विश्वा॑ अजुर्य दयसे॒ वि मा॒याः ॥९॥
आ सं॒यत॑मिन्द्र णः स्व॒स्तिं श॑त्रु॒तूर्या॑य बृह॒तीममृ॑ध्राम्।
यया॒ दासा॒न्यार्या॑णि वृ॒त्रा करो॑ वज्रिन्त्सु॒तुका॒ नाहु॑षाणि ॥१०॥
स नो॑ नि॒युद्भिः॑ पुरुहूत वेधो वि॒श्ववा॑राभि॒रा ग॑हि प्रयज्यो ।
न या अदे॑वो॒ वर॑ते॒ न दे॒व आभि॑र्याहि॒ तूय॒मा म॑द्र्य॒द्रिक्॥११॥