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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 005
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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१-७ इरिम्बिठिः। इन्द्रः। गायत्री।
अ॒यमु॑ त्वा विचर्षणे॒ जनी॑रिवा॒भि संवृ॑तः । प्र सोम॑ इन्द्र सर्पतु ॥१॥
तु॒वि॒ग्रीवो॑ व॒पोद॑रः सुबा॒हुरन्ध॑सो॒ मदे॑ । इन्द्रो॑ वृ॒त्राणि॑ जिघ्नते ॥२॥
इन्द्र॒ प्रेहि॑ पु॒रस्त्वं विश्व॒स्येशा॑न॒ ओज॑सा ।वृ॒त्राणि॑ वृत्रहं जहि ॥३॥
दी॒र्घस्ते॑ अस्त्वङ्कु॒शो येना॒ वसु॑ प्र॒यच्छ॑सि । यज॑मानाय सुन्व॒ते॥४॥
अ॒यं त॑ इन्द्र॒ सोमो॒ निपू॑तो॒ अधि॑ ब॒र्हिषि॑ । एही॑म॒स्य द्रवा॒ पिब॑ ॥५॥
शाचि॑गो॒ शाचि॑पूजना॒यं रणा॑य ते सु॒तः। आख॑ण्डल॒ प्र हू॑यसे ॥६॥
यस्ते॑ शृङ्गवृषो नपा॒त् प्रण॑पात् कुण्ड॒पाय्यः॑ । न्यस्मिन्दध्र॒ आ मनः॑ ॥७॥