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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 048
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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अ॒भि त्वा॒ वर्च॑सा गिरः॒ सिञ्च॑न्ती॒राच॑र॒ण्युवः॑ । अ॒भि व॒त्सं न धे॒नवः॑ ॥१॥
ता अ॑र्षन्ति शु॒भ्रियः॒ पृञ्च॑न्ती॒र्वर्च॑सा प्रि॒यः । जा॒तं जा॒त्रीर्यथा॑ हृ॒दा॥२॥
वज्रा॑पव॒साध्यः॑ की॒र्तिर्म्रि॒यमा॑ण॒माव॑हन्।मह्य॒मायु॑र्घृ॒तं पयः॑ ॥३॥
आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः । पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः ॥४॥
अ॒न्तश्च॑रति रोच॒ना अ॒स्य प्रा॒णाद॑पान॒तः । व्य॑ख्यन्महि॒षः स्वः ॥५॥
त्रिं॒शद् धामा॒ वि रा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गो अ॑शिश्रियत्। प्रति॒ वस्तो॒रह॒र्द्युभिः॑ ॥६॥