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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 07 Sukta 082
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
अग्निः।
१-६ शौनकः (संपत्कामः)। अग्निः। त्रिष्टुप्, २ ककुम्मती बृहती, ३ जगती।
अ॒भ्यऽर्चत सुष्टु॒तिं गव्य॑मा॒जिम॒स्मासु॑ भ॒द्रा द्रवि॑णानि धत्त ।
इ॒मं य॒ज्ञं न॑यत दे॒वता॑ नो घृ॒तस्य॒ धारा॒ मधु॑मत् पवन्ताम्॥१॥
मय्यग्रे॑ अ॒ग्निं गृ॑ह्णामि स॒ह क्ष॒त्रेण॒ वर्च॑सा॒ बले॑न ।
मयि॑ प्र॒जां मय्यायु॑र्दधामि॒ स्वाहा॒ मय्य॒ग्निम्॥२॥
इ॒हैवाग्ने॒ अधि॑ धारया र॒यिं मा त्वा॒ नि क्र॒न् पूर्व॑चित्ता निका॒रिणः॑ ।
क्ष॒त्रेणा॑ग्ने सु॒यम॑मस्तु॒ तुभ्य॑मुपस॒त्ता व॑र्धतां ते॒ अनि॑ष्टृतः ॥३॥
अन्व॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒दन्वहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः ।
अनु॒ सूर्य॑ उ॒षसो॒ अनु॑ र॒श्मीननु॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ वि॑वेश ॥४॥
प्रत्य॒ग्निरु॒षसा॒मग्र॑मख्य॒त् प्रत्यहा॑नि प्रथ॒मो जा॒तवे॑दाः ।
प्रति॒ सूर्य॑स्य पुरु॒धा च॑ र॒श्मीन् प्रति॒ द्यावा॑पृथि॒वी आ त॑तान ॥५॥
घृ॒तं ते॑ अग्ने दि॒व्ये स॒धस्थे॑ घृ॒तेन॒ त्वां मनु॑र॒द्या समि॑न्धे ।
घृ॒तं ते॑ दे॒वीर्न॒प्त्य॑१आ व॑हन्तु घृ॒तं तुभ्यं॑ दुह्रतां॒ गावो॑ अग्ने ॥६॥