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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 07 Sukta 005
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
आत्मा।
१-५ अथर्वा (ब्रह्मवर्चसकामः) । आत्मा। त्रिष्टुप्, ३ पङ्क्तिः ४ अनष्टुप्।
य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजन्त दे॒वास्तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन्।
ते ह॒ नाकं॑ महि॒मानः॑ सचन्त॒ यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः सन्ति॑ दे॒वाः ॥१॥
य॒ज्ञो ब॑भूव॒ स आ ब॑भूव॒ स प्र ज॑ज्ञे॒ स उ॑ वावृधे॒ पुनः॑ ।
स दे॒वाना॒मधि॑पतिर्बभूव॒ सो अ॒स्मासु॒ द्रवि॑ण॒मा द॑धातु ॥२॥
यद् दे॒वा दे॒वान् ह॒विषाय॑ज॒न्ताम॑र्त्या॒न् मन॒साम॑र्त्येन ।
मदे॑म॒ तत्र॑ पर॒मे व्योऽम॒न् पश्ये॑म॒ तदुदि॑तौ॒ सूर्य॑स्य ॥३॥
यत् पुरु॑षेण ह॒विषा॑ य॒ज्ञं दे॒वा अत॑न्वत ।
अस्ति॒ नु तस्मा॒दोजी॑यो॒ यद् विहव्ये॑नेजि॒रे॥४॥
मु॒ग्धा दे॒वा उ॒त शुनाय॑जन्तो॒त गोरङ्गैः॑ पुरु॒धाय॑जन्त ।
य इ॒मं य॒ज्ञं मन॑सा चि॒केत॒ प्र णो॑ वोच॑स्तमि॑हेह ब्र॑वः ॥५॥