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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 07 Sukta 076
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
गण्डमालाचिकित्सा।
१-६ अथर्वा। १,२ अपचिद्भैषज्यं, ३-६ जायान्यः, इन्द्रः। अनुष्टुप्,
आ सु॒स्रसः॑ सु॒स्रसो॒ अस॑तीभ्यो॒ अस॑त्तराः ।
से हो॑रर॒सत॑रा लव॒णाद् विक्ले॑दीयसीः ॥१॥
या ग्रैव्या॑ अप॒चितोऽथो॒ या उ॑पप॒क्ष्याः ।
वि॒जाम्नि॒ या अ॑प॒चितः॑ स्वयं॒स्रसः॑ ॥२॥
यः कीक॑साः प्रशृ॒णाति॑ तली॒द्यऽमव॒तिष्ठ॑ति ।
निर्हा॒स्तं सर्वं॑ जा॒यान्यं॒ यः कश्च॑ क॒कुदि॑ श्रि॒तः ॥३॥
प॒क्षी जा॒यान्यः॑ पतति॒ स आ वि॑शति॒ पूरु॑षम्।
तदक्षि॑तस्य भेष॒जमु॒भयोः॒ सुक्ष॑तस्य च ॥४॥
वि॒द्म वै ते॑ जायान्य॒ जानं॒ यतो॑ जायान्य॒ जाय॑से ।
क॒थं ह॒ तत्र॒ त्वं ह॑नो॒ यस्य॑ कृ॒ण्मो ह॒विर्गृ॒हे॥५॥
धृ॒षत् पि॑ब क॒लशे॒ सोम॑मिन्द्र वृत्र॒हा शू॑र सम॒रे वसू॑नाम्।
माध्य॑न्दिने॒ सव॑न॒ आ वृ॑षस्व रयि॒ष्ठानो॑ र॒यिम॒स्मासु॑ धेहि ॥६॥