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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 063
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
इ॒मा नु कं॒ भुव॑ना सीषधा॒मेन्द्र॑श्च॒ विश्वे॑ च दे॒वाः ।
य॒ज्ञं च॑ नस्त॒न्वं च प्र॒जां चा॑दि॒त्यैरिन्द्रः॑ स॒ह ची॑क्लृपाति ॥१॥
आ॒दि॒त्यैरिन्द्रः॒ सग॑णो म॒रुद्भि॑र॒स्माकं॑ भूत्ववि॒ता त॒नूना॑म्।
ह॒त्वाय॑ दे॒वा असु॑रा॒न् यदाय॑न् दे॒वा दे॑व॒त्वम॑भि॒रक्ष॑माणाः ॥२॥
प्र॒त्यञ्च॑म॒र्कम॑नयं॒ छची॑भि॒रादित् स्व॒धामि॑षि॒रां पर्य॑पश्यन्।
अ॒या वाजं॑ दे॒वहि॑तं सनेम॒ मदे॑म श॒तहि॑माः सु॒वीराः॑ ॥३॥
य एक॒ इद् वि॒दय॑ते॒ वसु॒ मर्ता॑य दा॒शुषे॑ । ईशा॑नो॒ अप्र॑तिष्कुत॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग॥४॥
क॒दा मर्त॑मरा॒धसं॑ प॒दा क्षुम्प॑मिव स्फुरत्। क॒दा नः॑ शुश्रव॒द् गिर॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग॥५॥
यश्चि॒द्धि त्वा॑ ब॒हुभ्य॒ आ सु॒तावां॑ आ॒विवा॑सति । उ॒ग्रं तत् प॑त्यते॒ शव॒ इन्द्रो॑ अ॒ङ्ग॥६॥
य इ॑न्द्र सोम॒पात॑मो॒ मदः॑ शविष्ठ॒ चेत॑ति । येना॒ हंसि॒ न्य॑१त्त्रिणं॒ तमी॑महे ॥७॥
येना॒ दश॑ग्व॒मध्रि॑गुं वे॒पय॑न्तं॒ स्वर्णरम्। येना॑ समु॒द्रमावि॑था॒ तमी॑महे ॥८॥
येन॒ सिन्धुं॑ म॒हीर॒पो रथां॑ इव प्रचो॒दयः॑ । पन्था॑मृ॒तस्य॒ यात॑वे॒ तमी॑महे ॥९॥