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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 126
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
वि हि सोतो॒रसृ॑क्षत॒ नेन्द्रं॑ दे॒वम॑मंसत ।
यत्राम॑दद् वृ॒षाक॑पिर॒र्यः पु॒ष्टेषु॒ मत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१॥
परा॒ ही॑न्द्र॒ धाव॑सि वृ॒षाक॑पे॒रति॒ व्यथिः॑ ।
नो अह॒ प्र वि॑न्दस्य॒न्यत्र॒ सोम॑पीतये॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥२॥
किम॒यं त्वां वृ॒षाक॑पिश्च॒कार॒ हरि॑तो मृ॒गः ।
यस्मा॑ इर॒स्यसीदु॒ न्व॑१र्यो वा॑ पुष्टि॒मद् वसु॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥३॥
यमि॒मं त्वं वृ॒षाक॑पिं प्रि॒यमि॑न्द्राभि॒रक्ष॑सि ।
श्वा न्व॑स्य जम्भिष॒दपि॒ कर्णे॑ वराह॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥४॥
प्रि॒या त॒ष्टानि॑ मे क॒पिर्व्य॑क्ता॒ व्यऽदूदुषत्।
शिरो॒ न्वऽस्य राविषं॒ न सु॒गं दु॒ष्कृते॑ भुवं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥५॥
न मत् स्त्री सु॑भ॒सत्त॑रा॒ न सु॒याशु॑तरा भुवत्।
न मत् प्रति॑च्यवीयसी॒ न सक्थ्युद्य॑मीयसी॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥६॥
उ॒वे अ॑म्ब सुलाभिके॒ यथे॑वा॒ङ्गं भ॑वि॒ष्यति॑ ।
भ॒सन्मे॑ अम्ब॒ सक्थि॑ मे॒ शिरो॑ मे॒ वीऽव हृष्यति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥७॥
किं सु॑बाहो स्वङ्गुरे॒ पृथु॑ष्टो॒ पृथु॑जाघने ।
किं शू॑रपत्नि न॒स्त्वम॒भ्यऽमीषि वृ॒षाक॑पिं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥८॥
अ॒वीरा॑मिव॒ माम॒यं श॒रारु॑र॒भि म॑न्यते ।
उ॒ताहम॑स्मि वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी म॒रुत्स॑खा॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥९॥
सं॒हो॒त्रं स्म॑ पु॒रा नारी॒ सम॑नं॒ वाव॑ गच्छति ।
वे॒धा ऋ॒तस्य॑ वी॒रिणीन्द्र॑पत्नी महीयते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१०॥
इ॒न्द्रा॒णीमा॒सु नारि॑षु सु॒भगा॑म॒हम॑श्रवम्।
न॒ह्यऽस्या अप॒रं च॒न ज॒रसा॒ मर॑ते॒ पति॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥११॥
नाहमि॑न्द्राणि रारण॒ सख्यु॑र्वृ॒षाक॑पेरृ॒ते।
यस्ये॒दमप्यं॑ ह॒विः प्रि॒यं दे॒वेषु॒ गच्छ॑ति॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१२॥
वृषा॑कपायि॒ रेव॑ति॒ सुपु॑त्र॒ आदु॒ सुस्नु॑षे ।
घस॑च॒ इन्द्र॑ उ॒क्षणः॑ प्रि॒यं का॑चित्क॒रं ह॒विर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१३॥
उ॒क्ष्णो हि मे॒ पञ्च॑दश सा॒कं पच॑न्ति विंश॒तिम्।
उ॒ताहम॑द्मि॒ पीव॒ इदु॒भा कु॒क्षी पृ॑णन्ति मे॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१४॥
वृ॒ष॒भो न ति॒ग्मशृ॑ङ्गो॒ऽन्तर्यू॒थेषु॒ रोरु॑वत्।
म॒न्थस्त॑ इन्द्र॒ शं हृ॒दे यं ते॑ सु॒नोति॑ भाव॒युर्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१५॥
न सेशे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒३ कपृ॑त्।
सेदी॑शे॒ यस्य॒ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१६॥
न सेशे॒ यस्य॑ रोम॒शं नि॑षे॒दुषो॑ वि॒जृम्भ॑ते ।
सेदी॑शे॒ यस्य॒ रम्ब॑तेऽन्त॒रा स॒क्थ्या॒३ कपृ॑द् विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१७॥
अ॒यमि॑न्द्र वृ॒षाक॑पिः॒ पर॑स्वन्तं ह॒तं वि॑दत्।
अ॒सिं सू॒नां नवं॑ च॒रुमादेध॒स्यान॒ आचि॑तं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१८॥
अ॒यमे॑मि वि॒चाक॑शद् विचि॒न्वन् दास॒मार्य॑म्।
पिबा॑मि पाक॒सुत्व॑नो॒ऽभि धीर॑मचाकशं॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥१९॥
धन्व॑ च॒ यत् कृ॒न्तत्रं॑ च॒ कति॑ स्वि॒त् ता वि योज॑ना ।
नेदी॑यसो वृषाक॒पेऽस्त॒मेहि॑ गृ॒हाँ उप॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥२०॥
पुन॒रेहि॑ वृषाकपे सुवि॒ता क॑ल्पयावहै ।
य ए॒ष स्व॑प्न॒नंश॒नोऽस्त॒मेषि॑ प॒था पुन॒र्विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥२१॥
यदुद॑ञ्चो वृषाकपे गृ॒हमि॒न्द्राज॑गन्तन ।
क्व॑१स्य पु॑ल्व॒घो मृ॒गः कम॑गं जन॒योप॑नो॒ विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥२२॥
पर्शु॑र्ह॒ नाम॑ मान॒वी सा॒कं स॑सूव विंश॒तिम्।
भ॒द्रं भ॑ल॒ त्यस्या॑ अभू॒द् यस्या॑ उ॒दर॒माम॑य॒द् विश्व॑स्मा॒दिन्द्र॒ उत्त॑रः ॥२३॥