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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 091
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
इ॒मां धियं॑ स॒प्तशी॑र्ष्णीं पि॒ता न॑ ऋ॒तप्र॑जातां बृह॒तीम॑विन्दत्।
तु॒रीयं॑ स्विज्जनयद् वि॒श्वज॑न्यो॒ऽयास्य॑ उ॒क्थमिन्द्रा॑य॒ शं॑सन्॥१॥
ऋ॒तं शंस॑न्त ऋ॒जु दीध्या॑ना दि॒वस्पु॒त्रासो॒ असु॑रस्य वी॒राः ।
विप्रं॑ प॒दमङ्गि॑रसो॒ दधा॑ना य॒ज्ञस्य॒ धाम॑ प्रथ॒मं म॑नन्त ॥२॥
हं॒सैरि॑व॒ सखि॑भि॒र्वाव॑दद्भिरश्म॒न्मया॑नि॒ नह॑ना॒ व्यस्य॑न्।
बृह॒स्पति॑रभि॒कनि॑क्रद॒द् गा उ॒त प्रास्तौ॒दुच्च॑ वि॒द्वां अ॑गायत्॥३॥
अ॒वो द्वाभ्यां॑ प॒र एक॑या॒ गा गुहा॒ तिष्ठ॑न्ती॒रनृ॑तस्य॒ सेतौ॑ ।
बृह॒स्पति॒स्तम॑सि॒ ज्योति॑रि॒च्छन्नुदु॒स्रा आक॒र्वि हि ति॒स्र आवः॑ ॥४॥
वि॒भिद्या॒ पुरं॑ श॒यथे॒मपा॑चीं॒ निस्त्रीणि॑ सा॒कमु॑द॒धेर॑कृन्तत्।
बृह॒स्पति॑रु॒षसं॒ सूर्यं॒ गाम॒र्कं वि॑वेद स्त॒नय॑न्निव॒ द्यौः ॥५॥
इन्द्रो॑ व॒लं र॑क्षि॒तारं॒ दुघा॑नां क॒रेणे॑व॒ वि च॑कर्ता॒ रवे॑ण ।
स्वेदा॑ञ्जिभिरा॒शिर॑मि॒च्छमा॒नोऽरो॑दयत् प॒णिमा गा अ॑मुष्णात्॥६॥
स ईं॑ स॒त्येभिः॒ सखि॑भिः शु॒चद्भि॒र्गोधा॑यसं॒ वि ध॑न॒सैर॑दर्दः ।
ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्वृष॑भिर्व॒राहै॑र्घ॒र्मस्वे॑देभि॒र्द्रवि॑णं॒ व्याऽनट्॥७॥
ते स॒त्येन॒ मन॑सा॒ गो॑पतिं॒ गा इ॑या॒नास॑ इषणयन्त धी॒भिः ।
बृह॒स्पति॑र्मि॒थोअ॑वद्यपेभि॒रुदु॒स्रिया॑ असृजत स्व॒युग्भिः॑ ॥८॥
तं व॒र्धय॑न्तो म॒तिभिः॑ शि॒वाभिः॑ सिं॒हमि॑व॒ नान॑दतं स॒धस्थे॑ ।
बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं॒ शूर॑सातौ॒ भरे॑भरे॒ अनु॑ मदेम जि॒ष्णुम्॥९॥
य॒दा वाज॒मस॑नद् वि॒श्वरू॑प॒मा द्यामरु॑क्ष॒दुत्त॑राणि॒ सद्म॑ ।
बृह॒स्पतिं॒ वृष॑णं व॒र्धय॑न्तो॒ नाना॒ सन्तो॒ बिभ्र॑तो॒ ज्योति॑रा॒सा॥१०॥
स॒त्यमा॒शिषं॑ कृणुता वयो॒धै की॒रिं चि॒द्ध्यव॑थ॒ स्वेभि॒रेवैः॑ ।
प॒श्चा मृधो॒ अप॑ भवन्तु॒ विश्वा॒स्तद् रो॑दसी शृणुतं विश्वमि॒न्वे॥११॥
इन्द्रो॑ म॒ह्ना म॑ह॒तो अ॑र्ण॒वस्य॒ वि मू॒र्धान॑मभिनदर्बु॒दस्य॑ ।
अह॒न्नहि॒मरि॑णात् सप्त सिन्धू॑न् दे॒वैर्द्या॑वापृथिवी॒ प्राव॑तं नः ॥१२॥