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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 064
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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एन्द्र॑ नो गधि प्रि॒यः स॑त्रा॒जिदगो॑ह्यः । गि॒रिर्न वि॒श्वत॑स्पृ॒थुः पति॑र्दि॒वः ॥१॥
अ॒भि हि स॑त्य सोमपा उ॒भे ब॒भूथ॒ रोद॑सी । इन्द्रासि॑ सुन्व॒तो वृ॒धः पति॑र्दि॒वः ॥२॥
त्वं हि शश्व॑तीना॒मिन्द्र॑ द॒र्ता पु॒रामसि॑ । ह॒न्ता दस्यो॒र्मनो॑र्वृ॒धः पति॑र्दि॒वः ॥३॥
एदु॒ मध्वो॑ म॒दिन्त॑रं सि॒ञ्च वा॑ध्वर्यो॒ अन्ध॑सः । एवा हि वी॒र स्तव॑ते स॒दावृ॑धः ॥४॥
इन्द्र॑ स्थातर्हरीणां॒ नकि॑ष्टे पू॒र्व्यस्तु॑तिम्। उदा॑नंश॒ शव॑सा॒ न भ॒न्दना॑ ॥५॥
तं वो॒ वाजा॑नां॒ पति॒महू॑महि श्रव॒स्यवः॑ । अप्रा॑युभिर्य॒ज्ञेभि॑र्वावृ॒धेन्य॑म्॥६॥