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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 031
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
ता व॒ज्रिणं॑ म॒न्दिनं॒ स्तोम्यं॒ मद॒ इन्द्रं॒ रथे॑ वहतो हर्य॒ता हरी॑ ।
पु॒रूण्य॑स्मै॒ सव॑नानि॒ हर्य॑त॒ इन्द्रा॑य॒ सोमा॒ हर॑यो दधन्विरे ॥१॥
अरं कामा॑य॒ हर॑यो दधन्विरे स्थि॒राय॑ हिन्व॒न् हर॑यो॒ हरी॑ तु॒रा।
अर्व॑द्भि॒र्यो हरि॑भि॒र्जोष॒मीय॑ते॒ सो अ॑स्य॒ कामं॒ हरि॑वन्तमानशे ॥२॥
हरि॑श्मशारु॒र्हरि॑केश आय॒सस्तु॑र॒स्पेये॒ यो ह॑रि॒पा अव॑र्धत ।
अर्व॑द्भि॒र्यो हरि॑भिर्वा॒जिनी॑वसु॒रति॒ विश्वा॑ दुरि॒ता पारि॑ष॒द्धरी॑ ॥३॥
स्रुवे॑व॒ यस्य॒ हरि॑णी विपे॒ततुः॒ शिप्रे॒ वाजा॑य॒ हरि॑णी॒ दवि॑ध्वतः ।
प्र यत् कृ॒ते च॑म॒से मर्मृ॑ज॒द्धरी॑ पी॒त्वा मद॑स्य हर्य॒तस्यान्ध॑सः ॥४॥
उ॒त स्म॒ सद्म॑ हर्य॒तस्य॑ प॒स्त्यो॒३रत्यो॒ न वाजं॒ हरि॑वां अचिक्रदत्।
म॒ही चि॒द्धि धि॒षणाह॑र्य॒दोज॑सा बृ॒हद् वयो॑ दधिषे हर्य॒तश्चि॒दा॥५॥