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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 012
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
(१-७) १-६ वसिष्ठः, ७ अत्रिः। इन्द्रः। त्रिष्टुप्।
उदु॒ ब्रह्मा॑ण्यैरत श्रव॒स्येन्द्रं॑ सम॒र्ये म॑हया वसिष्ठ ।
आ यो विश्वा॑नि॒ शव॑सा त॒तानो॑पश्रो॒ता म॒ ईव॑तो॒ वचां॑सि ॥१॥
अया॑मि॒ घोष॑ इन्द्र दे॒वजा॑मिरिर॒ज्यन्त॒ यच्छु॒रुधो॒ विवा॑चि ।
न॒हि स्वमायु॑श्चिकि॒ते जने॑षु॒ तानीदंहां॒स्यति॑ पर्ष्य॒स्मान्॥२॥
यु॒जे रथं॑ ग॒वेष॑णं॒ हरि॑भ्या॒मुप॒ ब्रह्मा॑णि जुजुषा॒णम॑स्थुः ।
वि बा॑धिष्ट स्य रोद॑सी महि॒त्वेन्द्रो॑ वृ॒त्राण्य॑प्र॒ती ज॑घ॒न्वान्॥३॥
आप॑श्चित् पिप्यु स्त॒र्यो॒३ न गावो॒ नक्ष॑न्नृ॒तं ज॑रि॒तार॑स्त इन्द्र ।
या॒हि वा॒युर्न नि॒युतो॑ नो॒ अच्छा॒ त्वं हि धी॒भिर्दय॑से॒ वि वाजा॑न्॥४॥
ते त्वा॒ मदा॑ इन्द्र मादयन्तु शु॒ष्मिणं॑ तुवि॒राध॑सं जरि॒त्रे।
एको॑ देव॒त्रा दय॑से॒ हि मर्ता॑न॒स्मिन्छू॑र॒ सव॑ने मादयस्व ॥५॥
ए॒वेदिन्द्रं॒ वृष॑णं॒ वज्र॑बाहुं॒ वसि॑ष्ठासो अ॒भ्यर्चन्त्य॒र्कैः ।
स न॑ स्तु॒तो वी॒रव॑द् धातु॒ गोम॑द् यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥६॥
ऋ॒जी॒षी व॒ज्री वृ॑ष॒भस्तु॑रा॒षाट्छु॒ष्मी राजा॑ वृत्र॒हा सो॑म॒पावा॑ ।
यु॒क्त्वा हरि॑भ्या॒मुप॑ यासद॒र्वाङ् माध्यं॑दिने॒ सव॑ने मत्स॒दिन्द्रः॑ ॥७॥