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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 07 Sukta 084
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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क्षत्रभृदग्निः।
१-३ भृगु। १ जातवेदाःअग्निः, २-३ इन्द्रः। त्रिष्टुप्, १ जगती।
अ॒ना॒धृ॒ष्यो जा॒तवे॑दा॒ अम॑र्त्यो वि॒राड॑ग्ने क्षत्र॒भृद् दी॑दिही॒ह।
विश्वा॒ अमी॑वाः प्रमु॒ञ्चन् मानु॑षीभिः शि॒वाभि॑र॒द्य परि॑ पाहि नो॒ गय॑म्॥१॥
इन्द्र॑ क्ष॒त्रम॒भि वा॒ममोजोऽजा॑यथा वृषभ चर्षणी॒नाम्।
अपा॑नुदो॒ जन॑ममित्रा॒यन्त॑मु॒रुं दे॒वेभ्यो॑ अकृणोरु लो॒कम्॥२॥
मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः प॑रा॒वत॒ आ ज॑गम्या॒त् पर॑स्याः ।
सृ॒कं सं॒शाय॑ प॒विमि॑न्द्र ति॒ग्मं वि शत्रू॑न् ताढि॒ वि मृघो॑ नुदस्व ॥३॥