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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 07 Sukta 026
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
विष्णुः।
१-८ मेधातिथिः। विष्णुः। १,८ त्रिष्टुप्, २ त्रिपदा विराड्-गायत्री, ३ त्र्यवसाना षट्-पदा विराट् शक्वरी, ४-७ गायत्री।
विष्णो॒र्नु कं॒ प्रा वो॑चं वी॒र्याऽणि॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे रजां॑सि ।
यो अस्क॑भाय॒दुत्त॑रं स॒धस्थं॑ विचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः ॥१॥
प्र तद् विष्णु॑ स्तवते वी॒र्याऽणि मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः ।
प॒रा॒वत॒ आ ज॑गम्या॒त् पर॑स्याः ॥२॥
यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑नेष्वधिक्षि॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा॑ ।
उ॒रु वि॑ष्णो॒ वि क्र॑मस्वो॒रु क्षया॑य नस्कृधि ।
घृ॒तं घृ॑तयोने पिब॒ प्रप्र॑ य॒ज्ञप॑तिं तिर ॥३॥
इ॒दं विष्णु॒र्वि च॑क्रमे त्रे॒धा नि द॑धे प॒दा।
समू॑ढमस्य पांसु॒रे॥४॥
त्रीणि॑ प॒दा वि च॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा॑भ्यः ।
इ॒तो धर्मा॑णि धा॒रय॑न्॥५॥
विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ यतो॑ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे।
इन्द्र॑स्य॒ युज्यः॒ सखा॑ ॥६॥
तद् विष्णोः॑ पर॒मं प॒दं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः॑ ।
दि॒वीऽव॒ चक्षु॒रात॑तम्॥७॥
दि॒वो वि॑ष्ण उ॒त वा॑ पृथि॒व्या म॒हो वि॑ष्ण उ॒रोर॒न्तरि॑क्षात्।
हस्तौ॑ पृणस्व ब॒हुभि॑र्व॒सव्यै॑रा॒प्रय॑च्छ॒ दक्षि॑णा॒दोत स॒व्यात्॥८॥