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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 07 Sukta 056
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
विषभैषज्यम्।
१-८ अथर्वा।वृश्चिकादयः, २ वनस्पतिः, ४ ब्रह्मणस्पतिः। अनुष्टुप्, ४ विराट्-प्रस्तारपङ्क्तिः।
तिर॑श्चिराजेरसि॒तात् पृदा॑कोः॒ परि॒ संभृ॑तम्।
तत् क॒ङ्कप॑र्वणो वि॒षमि॒यं वी॒रुद॑नीनशत्॥१॥
इ॒यं वी॒रुन्मधु॑जाता मधु॒श्चुन्म॑धु॒ला म॒धूः ।
सा विह्रु॑तस्य भेष॒ज्यथो॑ मशक॒जम्भ॑नी ॥२॥
यतो॑ द॒ष्टं यतो॑ धी॒तं तत॑स्ते॒ निर्ह्व॑यामसि ।
अ॒र्भस्य॑ तृप्रदं॒शिनो॑ म॒शक॑स्यार॒सं वि॒षम्॥३॥
अ॒यं यो व॒क्रो विप॑रु॒र्व्यऽङ्गो॒ मुखा॑नि व॒क्रा वृ॑जि॒ना कृ॒णोषि॑ ।
तानि॒ त्वं ब्र॑ह्मणस्पत इ॒षीका॑मिव॒ सं न॑मः ॥४॥
अ॒र॒सस्य॑ श॒र्कोट॑स्य नी॒चीन॑स्योप॒सर्प॑तः ।
वि॒षं ह्य॑१स्यादि॒ष्यथो॑ एनमजीजभम्॥५॥
न ते॑ बा॒ह्वोर्बल॑मस्ति॒ न शी॒र्षे नोत म॑ध्य॒तः ।
अथ॒ किं पा॒पया॑मु॒या पुच्छे॑ बिभर्ष्यर्भ॒कम्॥६॥
अ॒दन्ति॑ त्वा पि॒पीलि॑का॒ वि वृ॑श्चन्ति मयू॒र्यः ।
सर्वे॑ भल ब्रवाथ॒ शार्को॑टमर॒सं वि॒षम्॥७॥
य उ॒भाभ्यां॑ प्र॒हर॑सि॒ पुच्छे॑न चा॒स्येऽन च ।
आ॒स्ये॒३ न ते॑ वि॒षं किमु॑ ते पुच्छ॒धाव॑सत्॥८॥