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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 135
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
खिलानि ।
भुगि॑त्य॒भिग॑तः॒ शलि॑त्य॒पक्रा॑न्तः॒ फलि॑त्य॒भिष्ठि॑तः ।
दु॒न्दुभि॑माहनना॒भ्यां जरितरोथा॑मो दै॒व॥१॥
को॒श॒बिले॑ रजनि॒ ग्रन्थे॑र्धा॒नमु॒पानहि॑ पा॒दम्।
उत्त॑मां॒ जनि॑मां ज॒न्यानुत्त॑मां जनी॒न्वर्त्म॑न्यात्॥२॥
अला॑बूनि पृ॒षात॑का॒न्यश्व॑त्थ॒पला॑शम्।
पिपी॑लिका॒वट॒श्वसो॑ वि॒द्युत्स्वाप॑र्णश॒फो गोश॒फो जरित॒रोऽथामो॑ दै॒व॥३॥
वीमे दे॒वा अ॑क्रंस॒ताध्व॒र्यो क्षि॒प्रं प्र॒चर॑ ।
सु॒स॒त्यमिद्गवा॑म॒स्यसि॑ प्रखु॒दसि॑ ॥४॥
प॒त्नी यदृ॑श्यते प॒त्नी यक्ष्य॑माणा जरित॒रोऽथामो॑ दै॒व।
हो॒ता वि॑ष्टीमे॒न ज॑रित॒रोऽथामो॑ दै॒व॥५॥
आदि॑त्या ह जरितरङ्गि॑रोभ्यो॒ दक्षि॑णाम॒नय॑न्।
तां ह॑ जरितः॒ प्रत्या॑यं॒स्तामु ह॑ जरितः॒ प्रत्या॑यन्॥६॥
तां ह॑ जरितर्नः॒ प्रत्य॑गृभ्णं॒स्तामु ह॑ जरितर्नः॒ प्रत्य॑गृभ्णः ।
अहा॑नेतरसं न॒ वि चे॒तना॑नि य॒ज्ञानेत॑रसं न॒ पुरो॒गवा॑मः ॥७॥
उ॒त श्वेत॒ आशु॑पत्वा उ॒तो पद्या॑भि॒र्यवि॑ष्ठः ।
उ॒तेमाशु॒ मानं॑ पिपर्ति ॥८॥
आदि॑त्या रु॒द्रा वस॑व॒स्त्वेनु॑ त इ॒दं राधः॒ प्रति॑ गृभ्णीह्यङ्गिरः ।
इ॒दं राधो॑ वि॒भु प्रभु॑ इ॒दं राधो॑ बृ॒हत्पृथु॑ ॥९॥
देवा॑ दद॒त्वासु॑रं॒ तद्वो॑ अस्तु॒ सुचे॑तनम्।
युष्मां॑ अस्तु॒ दिवे॑दिवे प्र॒त्येव॑ गृभायत्॥१०॥
त्वमि॑न्द्र श॒र्मरि॑णा ह॒व्यं पारा॑वतेभ्यः ।
विप्रा॑य स्तुव॒ते व॑सु॒वनिं॑ दुरश्रव॒से व॑ह ॥११॥
त्वमि॑न्द्र क॒पोता॑य च्छिन्नप॒क्षाय॒ वञ्च॑ते ।
श्यामा॑कं प॒क्वं पीलु॑ च॒ वार॑स्मा॒ अकृ॑णोर्ब॒हुः ॥१२॥
अ॒रं॒ग॒रो वा॑वदीति त्रे॒धा ब॒द्धो व॑र॒त्रया॑ ।
इरा॑मह॒ प्रशं॑स॒त्यनि॑रा॒मप॑ सेधति ॥१३॥