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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 071
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
म॒हां इन्द्रः॑ प॒रश्च॒ नु म॑हि॒त्वम॑स्तु व॒ज्रिणे । द्यौर्न प्र॑थि॒ना शवः॑ ॥१॥
स॒मो॒हे वा॒ य आश॑त॒ नर॑स्तो॒कस्य॒ सनि॑तौ । विप्रा॑सो वा धिया॒यवः॑ ॥२॥
यः कु॒क्षिः सो॑म॒पात॑मः समु॒द्र इ॑व॒ पिन्व॑ते । उ॒र्वीरापो॒ न का॒कुदः॑ ॥३॥
ए॒वा ह्य॑स्य सू॒नृता॑ विर॒प्शी गोम॑ती म॒ही। प॒क्वा शाखा॒ न दा॒शुषे॑ ॥४॥
ए॒वा हि ते॒ विभू॑तय ऊ॒तय॑ इन्द्र॒ माव॑ते । स॒द्यश्चि॒त् सन्ति॑ दा॒शुषे॑ ॥५॥
ए॒वा ह्य॑स्य॒ काम्या॒ स्तोम॑ उ॒क्थं च॒ शंस्या॑ । इन्द्रा॑य॒ सोम॑पीतये ॥६॥
इन्द्रेहि॒ मत्स्यन्ध॑सो॒ विश्वे॑भिः सोम॒पर्व॑भिः । म॒हां अ॑भि॒ष्टिरोज॑सा ॥७॥
एमे॑नं सृजता सु॒ते म॒न्दिमिन्द्रा॑य म॒न्दिने॑ । चक्रिं॒ विश्वा॑नि॒ चक्र॑ये ॥८॥
मत्स्वा॑ सुशिप्र म॒न्दिभि॒ स्तोमे॑भिर्विश्वचर्षणे । सचै॒षु सव॑ने॒ष्वा॥९॥
असृ॑ग्रमिन्द्र ते॒ गिरः॒ प्रति॒त्वामुद॑हासत । अजो॑षा वृष॒भं पति॑म्॥१०॥
सं चो॑दय चि॒त्रम॒र्वाग् राध॑ इन्द्र॒ वरे॑ण्यम्। अस॒दित् ते॑ वि॒भु प्र॒भु॥११॥
अ॒स्मान्त्सु तत्र॑ चोद॒येन्द्र॑ रा॒ये रभ॑स्वतः । तुवि॑द्युम्न॒ यश॑स्वतः ॥१२॥
सं गोम॑दिन्द्र॒ वाज॑वद॒स्मे पृ॒थु श्रवो॑ बृ॒हत्। वि॒श्वायु॑र्धे॒ह्यक्षि॑तम्॥१३॥
अ॒स्मे धे॑हि॒ श्रवो॑ बृ॒हद् द्यु॒म्नं स॑हस्र॒सात॑मम्। इन्द्र॒ ता र॒थिनी॒रिषः॑ ॥१४॥
वसो॒रिन्द्रं॒ वसु॑पतिं गी॒र्भिर्गृ॒णन्त॑ ऋ॒ग्मिय॑म्। होम॒ गन्ता॑रमू॒तये॑ ॥१५॥
सु॒तेसु॑ते॒ न्योऽकसे बृ॒हद् बृ॑ह॒त एद॒रिः । इन्द्रा॑य शू॒षम॑र्चति ॥१६॥