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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 20 Sukta 037
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
यस्ति॒ग्मशृ॑ङ्गो वृष॒भो न भी॒मः एकः॑ कृ॒ष्टीश्च्य॒वय॑ति॒ प्र विश्वाः॑ ।
यः शश्व॑तो॒ अदा॑शुषो॒ गय॑स्य प्रय॒न्तासि॒ सुष्वि॑तराय॒ वेदः॑ ॥१॥
त्वं ह॒ त्यदि॑न्द्र॒ कुत्स॑मावः॒ शुश्रू॑षमाणस्त॒न्वा सम॒र्ये।
दासं॒ यच्छुष्णं कुय॑वं॒ न्यऽस्मा॒ अर॑न्धय आर्जुने॒याय॒ शिक्ष॑न्॥२॥
त्वं धृ॑ष्णो धृष॒ता वी॒तह॑व्यं॒ प्रावो॒ विश्वा॑भिरू॒तिभिः॑ सु॒दास॑म्।
प्र पौरु॑कुत्सिं त्र॒सद॑स्युमावः॒ क्षेत्र॑साता वृत्र॒हत्ये॑षु पू॒रुम्॥३॥
त्वं नृभि॑र्नृमणो दे॒ववी॑तौ॒ भूरी॑णि वृ॒त्रा ह॑र्यश्व हंसि ।
त्वं नि दस्युं॒ चुमु॑रिं धुनिं॒ चास्वा॑पयो द॒भीत॑ये सु॒हन्तु॑ ॥४॥
तव॑ च्यौ॒त्नानि॑ वज्रहस्त॒ तानि॒ नव॒ यत् पुरो॑ नव॒तिं च॑ स॒द्यः ।
नि॒वेश॑ने शतत॒मावि॑वेषी॒रहं॑ च वृ॒त्रं नमु॑चिमु॒ताह॑न्॥५॥
सना॒ ता त॑ इन्द्र॒ भोज॑नानि रा॒तह॑व्याय दा॒शुषे॑ सु॒दासे॑ ।
वृष्णे॑ ते॒ हरी॒ वृष॑णा युनज्मि॒ व्यन्तु॒ ब्रह्मा॑णि पुरुशाक॒ वाज॑म्॥६॥
मा ते॑ अ॒स्यां स॑हसाव॒न् परि॑ष्टाव॒घाय॑ भूम हरिवः परा॒दौ।
त्राय॑स्व नोऽवृ॒केभि॒र्वरू॑थै॒स्तव॑ प्रि॒यासः॑ सू॒रिषु॑ स्याम ॥७॥
प्रि॒यास॒ इत् ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरो॑ मदेम शर॒णे सखा॑यः ।
नि तु॒र्वशं॒ नि याद्वं॑ शिशीह्यतिथि॒ग्वाय॒ शंस्यं॑ करि॒ष्यन्॥८॥
स॒द्यश्चि॒न्नु ते॑ मघवन्न॒भिष्टौ॒ नरः॑ शंसन्त्युक्थ॒शास॑ उ॒क्था।
ये ते॒ हवे॑भि॒र्वि प॒णींरदा॑शन्न॒स्मान् वृ॑णीष्व॒ युज्या॑य॒ तस्मै॑ ॥९॥
ए॒ते स्तोमा॑ न॒रां नृ॑तम॒ तुभ्य॑मस्म॒द्र्यऽञ्चो॒ दद॑तो म॒घानि॑ ।
तेषा॑मिन्द्र वृत्र॒हत्ये॑ शि॒वो भूः॒ सखा॑ च॒ शूरो॑ऽवि॒ता च॑ नृ॒णाम्॥१०॥
नू इ॑न्द्र शूर॒ स्तव॑मान ऊ॒ती ब्रह्म॑जूतस्त॒न्वा वावृधस्व ।
उप॑ नो॒ वाजा॑न् मिमी॒ह्युप॒ स्ती॑न् यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥११॥