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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 07 Sukta 115
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
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पापलक्षणनाशनम्।
१-४ अथर्वाङ्गिराः। सविता, जातवेदाः। अनुष्टुप्, २-३ त्रिष्टुप्।
प्र प॑ते॒तः पा॑पि लक्ष्मि॒ नश्ये॒तः प्रामुतः॑ पत ।
अ॒य॒स्मये॑ना॒ङ्केन॑ द्विष॒ते त्वा स॑जामसि ॥१॥
या मा॑ ल॒क्ष्मीः प॑तया॒लूरजु॑ष्टाभिच॒स्कन्द॒ वन्द॑नेव वृ॒क्षम्।
अ॒न्यत्रा॒स्मत् स॑वित॒स्तामि॒तो धा॒ हिर॑ण्यहस्तो॒ वसु॑ नो॒ ररा॑णः ॥२॥
एक॑शतं ल॒क्ष्म्यो॒३मर्त्य॑स्य सा॒कं त॒न्वाऽज॒नुषोऽधि॑ जा॒ताः ।
तासां॒ पापि॑ष्ठा॒ निरि॒तः प्र हि॑ण्मः शि॒वा अ॒स्मभ्यं॑ जातवेदो॒ नि यच्छ ॥३॥
ए॒ता ए॑ना॒ व्याक॑रं खि॒ले गा विष्ठि॑ता इव ।
रम॑न्तां॒ पुण्या॑ ल॒क्ष्मीर्याः पा॒पीस्ता अ॑नीनशम्॥४॥