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Atharvaveda Shaunaka Samhita – Kanda 07 Sukta 050
By Dr. Sachchidanand Pathak, U.P. Sanskrit Sansthan, Lucknow, India.
विजयः।
१-९ अङ्गिराः ( कितववधकामः)। इन्द्रः। अनुष्टुप्, ३, ७ त्रिष्टुप्, ४ जगती, ६ भुरिक् त्रिष्टुप्।
यथा॑ वृ॒क्षम॒शनि॑र्वि॒श्वाहा॒ हन्त्य॑प्र॒ति।
ए॒वाहम॒द्य कि॑त॒वान॒क्षैर्ब॑ध्यासमप्र॒ति॥१॥
तु॒राणा॒मतु॑राणां वि॒शामव॑र्जुषीणाम्।
स॒मैतु॑ वि॒श्वतो॒ भगो॑ अन्तर्ह॒स्तं कृ॒तं मम॑ ॥२॥
ईडे॑ अग्निं स्वाव॑सुं॒ नमो॑भिरि॒ह प्र॑स॒क्तो वि च॑यत् कृ॒तं नः ।
रथै॑रिव॒ प्र भ॑रे वा॒जय॑द्भिः प्रदक्षि॒णं म॒रुतां॒ स्तोम॑मृध्याम्॥३॥
व॒यं ज॑येम॒ त्वया॑ यु॒जा वृत॑म॒स्माक॒मंश॒मुद॑वा॒ भरे॑भरे ।
अ॒स्मभ्य॑मिन्द्र॒ वरी॑यः सु॒गं कृ॑धि॒ प्र शत्रू॑णां मघव॒न् वृष्ण्या॑ रुज ॥४॥
अजै॑षं त्वा॒ संलि॑खित॒मजै॑षमु॒त सं॒रुध॑म्।
अविं॒ वृको॒ यथा॒ मथ॑दे॒वा म॑थ्नामि ते कृ॒तम्॥५॥
उ॒त प्र॒हामति॑दीवा जयति कृ॒तमि॑व श्व॒घ्नी वि चि॑नोति का॒ले।
यो दे॒वका॑मो॒ न धनं रु॒णद्धि॒ समित् तं रा॒यः सृ॑जति स्व॒धाभिः॑ ॥६॥
गोभि॑ष्टरे॒माम॑तिं दु॒रेवां॒ यवे॑न वा॒ क्षुधं॑ पुरुहूत॒ विश्वे॑ ।
व॒यं राज॑सु प्रथ॒मा धना॒न्यरि॑ष्टासो वृज॒नीभि॑र्जयेम ॥७॥
कृ॒तं मे॒ दक्षि॑णे॒ हस्ते॑ ज॒यो मे॑ स॒व्य आहि॑तः ।
गो॒जिद् भू॑यासमश्व॒जिद् ध॑नंज॒यो हि॑रण्य॒जित्॥८॥
अक्षाः॒ फल॑वतीं॒ द्युवं॑ द॒त्त गां क्षी॒रिणी॑मिव ।
सं मा॑ कृ॒तस्य॒ धार॑या॒ धनुः॒ स्नाव्ने॑व नह्यत ॥९॥