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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 05 Sukta 021
A
A+
४ सस आत्रेयः। अग्निः। अनुष्टुप्, ४ पंक्तिः।
म॒नु॒ष्वत् त्वा॒ नि धी॑महि मनु॒ष्वत् समि॑धीमहि । अग्ने॑ मनु॒ष्वद॑ङ्गिरो दे॒वान् दे॑वय॒ते य॑ज ॥१॥
त्वं हि मानु॑षे॒ जनेऽग्ने॒ सुप्री॑त इ॒ध्यसे॑ । स्रुच॑स्त्वा यन्त्यानु॒षक् सुजा॑त॒ सर्पि॑रासुते ॥२॥
त्वां विश्वे॑ स॒जोष॑सो दे॒वासो॑ दू॒तम॑क्रत । स॒प॒र्यन्त॑स्त्वा कवे य॒ज्ञेषु॑ दे॒वमी॑ळते ॥३॥
दे॒वं वो॑ देवय॒ज्यया॒ ऽग्निमी॑ळीत॒ मर्त्य॑: ।
समि॑द्धः शुक्र दीदिह्यृ॒तस्य॒ योनि॒मास॑दः स॒सस्य॒ योनि॒मास॑दः ॥४॥
म॒नु॒ष्वत् त्वा॒ नि धी॑महि मनु॒ष्वत् समि॑धीमहि । अग्ने॑ मनु॒ष्वद॑ङ्गिरो दे॒वान् दे॑वय॒ते य॑ज ॥१॥
त्वं हि मानु॑षे॒ जनेऽग्ने॒ सुप्री॑त इ॒ध्यसे॑ । स्रुच॑स्त्वा यन्त्यानु॒षक् सुजा॑त॒ सर्पि॑रासुते ॥२॥
त्वां विश्वे॑ स॒जोष॑सो दे॒वासो॑ दू॒तम॑क्रत । स॒प॒र्यन्त॑स्त्वा कवे य॒ज्ञेषु॑ दे॒वमी॑ळते ॥३॥
दे॒वं वो॑ देवय॒ज्यया॒ ऽग्निमी॑ळीत॒ मर्त्य॑: ।
समि॑द्धः शुक्र दीदिह्यृ॒तस्य॒ योनि॒मास॑दः स॒सस्य॒ योनि॒मास॑दः ॥४॥