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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 05 Sukta 020
A
A+
४ प्रयस्वन्त आत्रेयाः। अग्निः। अनुष्टुप्, ४ पंक्तिः।
यम॑ग्ने वाजसातम॒ त्वं चि॒न् मन्य॑से र॒यिम् ।
तं नो॑ गी॒र्भिः श्र॒वाय्यं॑ देव॒त्रा प॑नया॒ युज॑म् ॥१॥
ये अ॑ग्ने॒ नेरय॑न्ति ते वृ॒द्धा उ॒ग्रस्य॒ शव॑सः ।
अप॒ द्वेषो॒ अप॒ ह्वरो॒ऽन्यव्र॑तस्य सश्चिरे ॥२॥
होता॑रं त्वा वृणीम॒हेऽग्ने॒ दक्ष॑स्य॒ साध॑नम् ।
य॒ज्ञेषु॑ पू॒र्व्यं गि॒रा प्रय॑स्वन्तो हवामहे ॥३॥
इ॒त्था यथा॑ त ऊ॒तये॒ सह॑सावन्दि॒वेदि॑वे ।
रा॒य ऋ॒ताय॑ सुक्रतो॒ गोभि॑: ष्याम सध॒मादो॑ वी॒रैः स्या॑म सध॒माद॑: ॥४॥
यम॑ग्ने वाजसातम॒ त्वं चि॒न् मन्य॑से र॒यिम् ।
तं नो॑ गी॒र्भिः श्र॒वाय्यं॑ देव॒त्रा प॑नया॒ युज॑म् ॥१॥
ये अ॑ग्ने॒ नेरय॑न्ति ते वृ॒द्धा उ॒ग्रस्य॒ शव॑सः ।
अप॒ द्वेषो॒ अप॒ ह्वरो॒ऽन्यव्र॑तस्य सश्चिरे ॥२॥
होता॑रं त्वा वृणीम॒हेऽग्ने॒ दक्ष॑स्य॒ साध॑नम् ।
य॒ज्ञेषु॑ पू॒र्व्यं गि॒रा प्रय॑स्वन्तो हवामहे ॥३॥
इ॒त्था यथा॑ त ऊ॒तये॒ सह॑सावन्दि॒वेदि॑वे ।
रा॒य ऋ॒ताय॑ सुक्रतो॒ गोभि॑: ष्याम सध॒मादो॑ वी॒रैः स्या॑म सध॒माद॑: ॥४॥