SELECT MANDALA
SELECT SUKTA OF MANDALA 07
- 001
- 002
- 003
- 004
- 005
- 006
- 007
- 008
- 009
- 010
- 011
- 012
- 013
- 014
- 015
- 016
- 017
- 018
- 019
- 020
- 021
- 022
- 023
- 024
- 025
- 026
- 027
- 028
- 029
- 030
- 031
- 032
- 033
- 034
- 035
- 036
- 037
- 038
- 039
- 040
- 041
- 042
- 043
- 044
- 045
- 046
- 047
- 048
- 049
- 050
- 051
- 052
- 053
- 054
- 055
- 056
- 057
- 058
- 059
- 060
- 061
- 062
- 063
- 064
- 065
- 066
- 067
- 068
- 069
- 070
- 071
- 072
- 073
- 074
- 075
- 076
- 077
- 078
- 079
- 080
- 081
- 082
- 083
- 084
- 085
- 086
- 087
- 088
- 089
- 090
- 091
- 092
- 093
- 094
- 095
- 096
- 097
- 098
- 099
- 100
- 101
- 102
- 103
- 104
Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 07 Sukta 011
A
A+
५ मैत्रावरुणिर्वसिष्ठ:। अग्नि: । त्रिष्टुप् ।
म॒हाँ अ॑स्यध्व॒रस्य॑ प्रके॒तो न ऋ॒ते त्वद॒मृता॑ मादयन्ते ।
आ विश्वे॑भिः स॒रथं॑ याहि दे॒वैर्न्य॑ग्ने॒ होता॑ प्रथ॒मः स॑दे॒ह ॥१॥
त्वामी॑ळते अजि॒रं दू॒त्या॑य ह॒विष्म॑न्त॒: सद॒मिन्मानु॑षासः ।
यस्य॑ दे॒वैरास॑दो ब॒र्हिर॒ग्नेऽहा॑न्यस्मै सु॒दिना॑ भवन्ति ॥२॥
त्रिश्चि॑द॒क्तोः प्र चि॑कितु॒र्वसू॑नि॒ त्वे अ॒न्तर्दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य ।
म॒नु॒ष्वद॑ग्न इ॒ह य॑क्षि दे॒वान्भवा॑ नो दू॒तो अ॑भिशस्ति॒पावा॑ ॥३॥
अ॒ग्निरी॑शे बृह॒तो अ॑ध्व॒रस्या॒ऽग्निर्विश्व॑स्य ह॒विष॑: कृ॒तस्य॑ ।
क्रतुं॒ ह्य॑स्य॒ वस॑वो जु॒षन्ताऽथा॑ दे॒वा द॑धिरे हव्य॒वाह॑म् ॥४॥
आग्ने॑ वह हवि॒रद्या॑य दे॒वानिन्द्र॑ज्येष्ठास इ॒ह मा॑दयन्ताम् ।
इ॒मं य॒ज्ञं दि॒वि दे॒वेषु॑ धेहि यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥५॥
म॒हाँ अ॑स्यध्व॒रस्य॑ प्रके॒तो न ऋ॒ते त्वद॒मृता॑ मादयन्ते ।
आ विश्वे॑भिः स॒रथं॑ याहि दे॒वैर्न्य॑ग्ने॒ होता॑ प्रथ॒मः स॑दे॒ह ॥१॥
त्वामी॑ळते अजि॒रं दू॒त्या॑य ह॒विष्म॑न्त॒: सद॒मिन्मानु॑षासः ।
यस्य॑ दे॒वैरास॑दो ब॒र्हिर॒ग्नेऽहा॑न्यस्मै सु॒दिना॑ भवन्ति ॥२॥
त्रिश्चि॑द॒क्तोः प्र चि॑कितु॒र्वसू॑नि॒ त्वे अ॒न्तर्दा॒शुषे॒ मर्त्या॑य ।
म॒नु॒ष्वद॑ग्न इ॒ह य॑क्षि दे॒वान्भवा॑ नो दू॒तो अ॑भिशस्ति॒पावा॑ ॥३॥
अ॒ग्निरी॑शे बृह॒तो अ॑ध्व॒रस्या॒ऽग्निर्विश्व॑स्य ह॒विष॑: कृ॒तस्य॑ ।
क्रतुं॒ ह्य॑स्य॒ वस॑वो जु॒षन्ताऽथा॑ दे॒वा द॑धिरे हव्य॒वाह॑म् ॥४॥
आग्ने॑ वह हवि॒रद्या॑य दे॒वानिन्द्र॑ज्येष्ठास इ॒ह मा॑दयन्ताम् ।
इ॒मं य॒ज्ञं दि॒वि दे॒वेषु॑ धेहि यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥५॥