SELECT MANDALA
SELECT SUKTA OF MANDALA 07
- 001
- 002
- 003
- 004
- 005
- 006
- 007
- 008
- 009
- 010
- 011
- 012
- 013
- 014
- 015
- 016
- 017
- 018
- 019
- 020
- 021
- 022
- 023
- 024
- 025
- 026
- 027
- 028
- 029
- 030
- 031
- 032
- 033
- 034
- 035
- 036
- 037
- 038
- 039
- 040
- 041
- 042
- 043
- 044
- 045
- 046
- 047
- 048
- 049
- 050
- 051
- 052
- 053
- 054
- 055
- 056
- 057
- 058
- 059
- 060
- 061
- 062
- 063
- 064
- 065
- 066
- 067
- 068
- 069
- 070
- 071
- 072
- 073
- 074
- 075
- 076
- 077
- 078
- 079
- 080
- 081
- 082
- 083
- 084
- 085
- 086
- 087
- 088
- 089
- 090
- 091
- 092
- 093
- 094
- 095
- 096
- 097
- 098
- 099
- 100
- 101
- 102
- 103
- 104
Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 07 Sukta 062
A
A+
६ मैत्रावरुणिर्वसिष्ठ:। १-३ सूर्य:, ४-६ मित्रावरुणौ । त्रिष्टुप् ।
उत्सूर्यो॑ बृ॒हद॒र्चींष्य॑श्रेत्पु॒रु विश्वा॒ जनि॑म॒ मानु॑षाणाम् ।
स॒मो दि॒वा द॑दृशे॒ रोच॑मान॒: क्रत्वा॑ कृ॒तः सुकृ॑तः क॒र्तृभि॑र्भूत् ॥१॥
स सू॑र्य॒ प्रति॑ पु॒रो न॒ उद्गा॑ ए॒भिः स्तोमे॑भिरेत॒शेभि॒रेवै॑: ।
प्र नो॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय वो॒चोऽना॑गसो अर्य॒म्णे अ॒ग्नये॑ च ॥२॥
वि न॑: स॒हस्रं॑ शु॒रुधो॑ रदन्त्वृ॒तावा॑नो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॒ग्निः ।
यच्छ॑न्तु च॒न्द्रा उ॑प॒मं नो॑ अ॒र्कमा न॒: कामं॑ पूपुरन्तु॒ स्तवा॑नाः ॥३॥
द्यावा॑भूमी अदिते॒ त्रासी॑थां नो॒ ये वां॑ ज॒ज्ञुः सु॒जनि॑मान ऋष्वे ।
मा हेळे॑ भूम॒ वरु॑णस्य वा॒योर्मा मि॒त्रस्य॑ प्रि॒यत॑मस्य नृ॒णाम् ॥४॥
प्र बा॒हवा॑ सिसृतं जी॒वसे॑ न॒ आ नो॒ गव्यू॑तिमुक्षतं घृ॒तेन॑ ।
आ नो॒ जने॑ श्रवयतं युवाना श्रु॒तं मे॑ मित्रावरुणा॒ हवे॒मा ॥५॥
नू मि॒त्रो वरु॑णो अर्य॒मा न॒स्त्मने॑ तो॒काय॒ वरि॑वो दधन्तु ।
सु॒गा नो॒ विश्वा॑ सु॒पथा॑नि सन्तु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥६॥
उत्सूर्यो॑ बृ॒हद॒र्चींष्य॑श्रेत्पु॒रु विश्वा॒ जनि॑म॒ मानु॑षाणाम् ।
स॒मो दि॒वा द॑दृशे॒ रोच॑मान॒: क्रत्वा॑ कृ॒तः सुकृ॑तः क॒र्तृभि॑र्भूत् ॥१॥
स सू॑र्य॒ प्रति॑ पु॒रो न॒ उद्गा॑ ए॒भिः स्तोमे॑भिरेत॒शेभि॒रेवै॑: ।
प्र नो॑ मि॒त्राय॒ वरु॑णाय वो॒चोऽना॑गसो अर्य॒म्णे अ॒ग्नये॑ च ॥२॥
वि न॑: स॒हस्रं॑ शु॒रुधो॑ रदन्त्वृ॒तावा॑नो॒ वरु॑णो मि॒त्रो अ॒ग्निः ।
यच्छ॑न्तु च॒न्द्रा उ॑प॒मं नो॑ अ॒र्कमा न॒: कामं॑ पूपुरन्तु॒ स्तवा॑नाः ॥३॥
द्यावा॑भूमी अदिते॒ त्रासी॑थां नो॒ ये वां॑ ज॒ज्ञुः सु॒जनि॑मान ऋष्वे ।
मा हेळे॑ भूम॒ वरु॑णस्य वा॒योर्मा मि॒त्रस्य॑ प्रि॒यत॑मस्य नृ॒णाम् ॥४॥
प्र बा॒हवा॑ सिसृतं जी॒वसे॑ न॒ आ नो॒ गव्यू॑तिमुक्षतं घृ॒तेन॑ ।
आ नो॒ जने॑ श्रवयतं युवाना श्रु॒तं मे॑ मित्रावरुणा॒ हवे॒मा ॥५॥
नू मि॒त्रो वरु॑णो अर्य॒मा न॒स्त्मने॑ तो॒काय॒ वरि॑वो दधन्तु ।
सु॒गा नो॒ विश्वा॑ सु॒पथा॑नि सन्तु यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥६॥