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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 190
A
A+
८ अगस्त्यो मैत्रावरुणिः । बृहस्पतिः। त्रिष्टुप्।
अ॒न॒र्वाणं॑ वृष॒भं म॒न्द्रजि॑ह्वं॒ बृह॒स्पतिं॑ वर्धया॒ नव्य॑म॒र्कैः ।
गा॒था॒न्य॑: सु॒रुचो॒ यस्य॑ दे॒वा आ॑शृ॒ण्वन्ति॒ नव॑मानस्य॒ मर्ता॑: ॥१
तमृ॒त्विया॒ उप॒ वाच॑: सचन्ते॒ सर्गो॒ न यो दे॑वय॒तामस॑र्जि ।
बृह॒स्पति॒: स ह्यञ्जो॒ वरां॑सि॒ विभ्वाभ॑व॒त् समृ॒ते मा॑त॒रिश्वा॑ ॥२
उप॑स्तुतिं॒ नम॑स॒ उद्य॑तिं च॒ श्लोकं॑ यंसत् सवि॒तेव॒ प्र बा॒हू ।
अ॒स्य क्रत्वा॑ह॒न्यो॒३ यो अस्ति॑ मृ॒गो न भी॒मो अ॑र॒क्षस॒स्तुवि॑ष्मान् ॥३
अ॒स्य श्लोको॑ दि॒वीय॑ते पृथि॒व्यामत्यो॒ न यं॑सद् यक्ष॒भृद् विचे॑ताः ।
मृ॒गाणां॒ न हे॒तयो॒ यन्ति॑ चे॒मा बृह॒स्पते॒रहि॑मायाँ अ॒भि द्यून् ॥४
ये त्वा॑ देवोस्रि॒कं मन्य॑मानाः पा॒पा भ॒द्रमु॑प॒जीव॑न्ति प॒ज्राः ।
न दू॒ढ्ये॒३ अनु॑ ददासि वा॒मं बृह॑स्पते॒ चय॑स॒ इत् पिया॑रुम् ॥५
सु॒प्रैतु॑: सू॒यव॑सो॒ न पन्था॑ दुर्नि॒यन्तु॒: परि॑प्रीतो॒ न मि॒त्रः ।
अ॒न॒र्वाणो॑ अ॒भि ये चक्ष॑ते॒ नोऽपी॑वृता अपोर्णु॒वन्तो॑ अस्थुः ॥६
सं यं स्तुभो॒ऽवन॑यो॒ न यन्ति॑ समु॒द्रं न स्र॒वतो॒ रोध॑चक्राः ।
स वि॒द्वाँ उ॒भयं॑ चष्टे अ॒न्तर्बृह॒स्पति॒स्तर॒ आप॑श्च॒ गृध्र॑: ॥७
ए॒वा म॒हस्तु॑विजा॒तस्तुवि॑ष्मा॒न् बृह॒स्पति॑र्वृष॒भो धा॑यि दे॒वः ।
स न॑: स्तु॒तो वी॒रव॑द् धातु॒ गोम॑द् वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥८
अ॒न॒र्वाणं॑ वृष॒भं म॒न्द्रजि॑ह्वं॒ बृह॒स्पतिं॑ वर्धया॒ नव्य॑म॒र्कैः ।
गा॒था॒न्य॑: सु॒रुचो॒ यस्य॑ दे॒वा आ॑शृ॒ण्वन्ति॒ नव॑मानस्य॒ मर्ता॑: ॥१
तमृ॒त्विया॒ उप॒ वाच॑: सचन्ते॒ सर्गो॒ न यो दे॑वय॒तामस॑र्जि ।
बृह॒स्पति॒: स ह्यञ्जो॒ वरां॑सि॒ विभ्वाभ॑व॒त् समृ॒ते मा॑त॒रिश्वा॑ ॥२
उप॑स्तुतिं॒ नम॑स॒ उद्य॑तिं च॒ श्लोकं॑ यंसत् सवि॒तेव॒ प्र बा॒हू ।
अ॒स्य क्रत्वा॑ह॒न्यो॒३ यो अस्ति॑ मृ॒गो न भी॒मो अ॑र॒क्षस॒स्तुवि॑ष्मान् ॥३
अ॒स्य श्लोको॑ दि॒वीय॑ते पृथि॒व्यामत्यो॒ न यं॑सद् यक्ष॒भृद् विचे॑ताः ।
मृ॒गाणां॒ न हे॒तयो॒ यन्ति॑ चे॒मा बृह॒स्पते॒रहि॑मायाँ अ॒भि द्यून् ॥४
ये त्वा॑ देवोस्रि॒कं मन्य॑मानाः पा॒पा भ॒द्रमु॑प॒जीव॑न्ति प॒ज्राः ।
न दू॒ढ्ये॒३ अनु॑ ददासि वा॒मं बृह॑स्पते॒ चय॑स॒ इत् पिया॑रुम् ॥५
सु॒प्रैतु॑: सू॒यव॑सो॒ न पन्था॑ दुर्नि॒यन्तु॒: परि॑प्रीतो॒ न मि॒त्रः ।
अ॒न॒र्वाणो॑ अ॒भि ये चक्ष॑ते॒ नोऽपी॑वृता अपोर्णु॒वन्तो॑ अस्थुः ॥६
सं यं स्तुभो॒ऽवन॑यो॒ न यन्ति॑ समु॒द्रं न स्र॒वतो॒ रोध॑चक्राः ।
स वि॒द्वाँ उ॒भयं॑ चष्टे अ॒न्तर्बृह॒स्पति॒स्तर॒ आप॑श्च॒ गृध्र॑: ॥७
ए॒वा म॒हस्तु॑विजा॒तस्तुवि॑ष्मा॒न् बृह॒स्पति॑र्वृष॒भो धा॑यि दे॒वः ।
स न॑: स्तु॒तो वी॒रव॑द् धातु॒ गोम॑द् वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥८