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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 186
११ अगस्त्यो मैत्रावरुणिः । विश्वे देवाः। त्रिष्टुप्।
आ न॒ इळा॑भिर्वि॒दथे॑ सुश॒स्ति वि॒श्वान॑रः सवि॒ता दे॒व ए॑तु ।
अपि॒ यथा॑ युवानो॒ मत्स॑था नो॒ विश्वं॒ जग॑दभिपि॒त्वे म॑नी॒षा ॥१
आ नो॒ विश्व॒ आस्क्रा॑ गमन्तु दे॒वा मि॒त्रो अ॑र्य॒मा वरु॑णः स॒जोषा॑: ।
भुव॒न् यथा॑ नो॒ विश्वे॑ वृ॒धास॒: कर॑न्त्सु॒षाहा॑ विथु॒रं न शव॑: ॥२
प्रेष्ठं॑ वो॒ अति॑थिं गृणीषे॒ ऽग्निं श॒स्तिभि॑स्तु॒र्वणि॑: स॒जोषा॑: ।
अस॒द् यथा॑ नो॒ वरु॑णः सुकी॒र्तिरिष॑श्च पर्षदरिगू॒र्तः सू॒रिः ॥३
उप॑ व॒ एषे॒ नम॑सा जिगी॒षोषासा॒नक्ता॑ सु॒दुघे॑व धे॒नुः ।
स॒मा॒ने अह॑न् वि॒मिमा॑नो अ॒र्कं विषु॑रूपे॒ पय॑सि॒ सस्मि॒न्नूध॑न् ॥४
उ॒त नो ऽहि॑र्बु॒ध्न्यो॒३ मय॑स्क॒: शिशुं॒ न पि॒प्युषी॑व वेति॒ सिन्धु॑: ।
येन॒ नपा॑तम॒पां जु॒नाम॑ मनो॒जुवो॒ वृष॑णो॒ यं वह॑न्ति ॥५
उ॒त न॑ ईं॒ त्वष्टा ग॒न्त्वच्छा॒ स्मत् सू॒रिभि॑रभिपि॒त्वे स॒जोषा॑: ।
आ वृ॑त्र॒हेन्द्र॑श्चर्षणि॒प्रास्तु॒विष्ट॑मो न॒रां न॑ इ॒ह ग॑म्याः ॥६
उ॒त न॑ ईं म॒तयोऽश्व॑योगा॒: शिशुं॒ न गाव॒स्तरु॑णं रिहन्ति ।
तमीं॒ गिरो॒ जन॑यो॒ न पत्नी॑: सुर॒भिष्ट॑मं न॒रां न॑सन्त ॥७
उ॒त न॑ ईं म॒रुतो॑ वृ॒द्धसे॑ना॒: स्मद् रोद॑सी॒ सम॑नसः सदन्तु ।
पृष॑दश्वासो॒ऽवन॑यो॒ न रथा॑ रि॒शाद॑सो मित्र॒युजो॒ न दे॒वाः ॥८
प्र नु यदे॑षां महि॒ना चि॑कि॒त्रे प्र यु॑ञ्जते प्र॒युज॒स्ते सु॑वृ॒क्ति ।
अध॒ यदे॑षां सु॒दिने॒ न शरु॒र्विश्व॒मेरि॑णं प्रुषा॒यन्त॒ सेना॑: ॥९
प्रो अ॒श्विना॒वव॑से कृणुध्वं॒ प्र पू॒षणं॒ स्वत॑वसो॒ हि सन्ति॑ ।
अ॒द्वे॒षो विष्णु॒र्वात॑ ऋभु॒क्षा अच्छा॑ सु॒म्नाय॑ ववृतीय दे॒वान् ॥१०
इ॒यं सा वो॑ अ॒स्मे दीधि॑तिर्यजत्रा अपि॒प्राणी॑ च॒ सद॑नी च भूयाः ।
नि या दे॒वेषु॒ यत॑ते वसू॒युर्वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥११