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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 182
A
A+
८ अगस्त्यो मैत्रावरुणिः । अश्विनौ। जगती, ६-८ त्रिष्टुप्।
अभू॑दि॒दं व॒युन॒मो षु भू॑षता॒ रथो॒ वृष॑ण्वा॒न् मद॑ता मनीषिणः ।
धि॒यं॒जि॒न्वा धिष्ण्या॑ वि॒श्पला॑वसू दि॒वो नपा॑ता सु॒कृते॒ शुचि॑व्रता ॥१॥
इन्द्र॑तमा॒ हि धिष्ण्या॑ म॒रुत्त॑मा द॒स्रा दंसि॑ष्ठा र॒थ्या॑ र॒थीत॑मा ।
पू॒र्णं रथं॑ वहेथे॒ मध्व॒ आचि॑तं॒ तेन॑ दा॒श्वांस॒मुप॑ याथो अश्विना ॥२॥
किमत्र॑ दस्रा कृणुथ॒: किमा॑साथे॒ जनो॒ यः कश्चि॒दह॑विर्मही॒यते॑ ।
अति॑ क्रमिष्टं जु॒रतं॑ प॒णेरसुं॒ ज्योति॒र्विप्रा॑य कृणुतं वच॒स्यवे॑ ॥३॥
ज॒म्भय॑तम॒भितो॒ राय॑त॒: शुनो॑ ह॒तं मृधो॑ वि॒दथु॒स्तान्य॑श्विना ।
वाचं॑वाचं जरि॒तू र॒त्निनीं॑ कृतमु॒भा शंसं॑ नासत्यावतं॒ मम॑ ॥४॥
यु॒वमे॒तं च॑क्रथु॒: सिन्धु॑षु प्ल॒वमा॑त्म॒न्वन्तं॑ प॒क्षिणं॑ तौ॒ग्र्याय॒ कम् ।
येन॑ देव॒त्रा मन॑सा निरू॒हथु॑: सुपप्त॒नी पे॑तथु॒: क्षोद॑सो म॒हः ॥५॥
अव॑विद्धं तौ॒ग्र्यम॒प्स्व१न्तर॑नारम्भ॒णे तम॑सि॒ प्रवि॑द्धम् ।
चत॑स्रो॒ नावो॒ जठ॑लस्य॒ जुष्टा॒ उद॒श्विभ्या॑मिषि॒ताः पा॑रयन्ति ॥६॥
कः स्वि॑द् वृ॒क्षो निष्ठि॑तो॒ मध्ये॒ अर्ण॑सो॒ यं तौ॒ग्र्यो ना॑धि॒तः प॒र्यष॑स्वजत् ।
प॒र्णा मृ॒गस्य॑ प॒तरो॑रिवा॒रभ॒ उद॑श्विना ऊहथु॒: श्रोम॑ताय॒ कम् ॥७॥
तद् वां नरा नासत्या॒वनु॑ ष्या॒द् यद् वां॒ माना॑स उ॒चथ॒मवो॑चन् ।
अ॒स्माद॒द्य सद॑सः सो॒म्यादा वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥८॥
अभू॑दि॒दं व॒युन॒मो षु भू॑षता॒ रथो॒ वृष॑ण्वा॒न् मद॑ता मनीषिणः ।
धि॒यं॒जि॒न्वा धिष्ण्या॑ वि॒श्पला॑वसू दि॒वो नपा॑ता सु॒कृते॒ शुचि॑व्रता ॥१॥
इन्द्र॑तमा॒ हि धिष्ण्या॑ म॒रुत्त॑मा द॒स्रा दंसि॑ष्ठा र॒थ्या॑ र॒थीत॑मा ।
पू॒र्णं रथं॑ वहेथे॒ मध्व॒ आचि॑तं॒ तेन॑ दा॒श्वांस॒मुप॑ याथो अश्विना ॥२॥
किमत्र॑ दस्रा कृणुथ॒: किमा॑साथे॒ जनो॒ यः कश्चि॒दह॑विर्मही॒यते॑ ।
अति॑ क्रमिष्टं जु॒रतं॑ प॒णेरसुं॒ ज्योति॒र्विप्रा॑य कृणुतं वच॒स्यवे॑ ॥३॥
ज॒म्भय॑तम॒भितो॒ राय॑त॒: शुनो॑ ह॒तं मृधो॑ वि॒दथु॒स्तान्य॑श्विना ।
वाचं॑वाचं जरि॒तू र॒त्निनीं॑ कृतमु॒भा शंसं॑ नासत्यावतं॒ मम॑ ॥४॥
यु॒वमे॒तं च॑क्रथु॒: सिन्धु॑षु प्ल॒वमा॑त्म॒न्वन्तं॑ प॒क्षिणं॑ तौ॒ग्र्याय॒ कम् ।
येन॑ देव॒त्रा मन॑सा निरू॒हथु॑: सुपप्त॒नी पे॑तथु॒: क्षोद॑सो म॒हः ॥५॥
अव॑विद्धं तौ॒ग्र्यम॒प्स्व१न्तर॑नारम्भ॒णे तम॑सि॒ प्रवि॑द्धम् ।
चत॑स्रो॒ नावो॒ जठ॑लस्य॒ जुष्टा॒ उद॒श्विभ्या॑मिषि॒ताः पा॑रयन्ति ॥६॥
कः स्वि॑द् वृ॒क्षो निष्ठि॑तो॒ मध्ये॒ अर्ण॑सो॒ यं तौ॒ग्र्यो ना॑धि॒तः प॒र्यष॑स्वजत् ।
प॒र्णा मृ॒गस्य॑ प॒तरो॑रिवा॒रभ॒ उद॑श्विना ऊहथु॒: श्रोम॑ताय॒ कम् ॥७॥
तद् वां नरा नासत्या॒वनु॑ ष्या॒द् यद् वां॒ माना॑स उ॒चथ॒मवो॑चन् ।
अ॒स्माद॒द्य सद॑सः सो॒म्यादा वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥८॥