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Rigveda – Shakala Samhita – Mandala 01 Sukta 180
A
A+
१-१० अगस्त्यो मैत्रावरुणिः। अश्विनौ। त्रिष्टुप्।
यु॒वो रजां॑सि सु॒यमा॑सो॒ अश्वा॒ रथो॒ यद्वां॒ पर्यर्णां॑सि॒ दीय॑त् ।
हि॒र॒ण्यया॑ वां प॒वय॑: प्रुषाय॒न् मध्व॒: पिब॑न्ता उ॒षस॑: सचेथे ॥१॥
यु॒वमत्य॒स्याव॑ नक्षथो॒ यद् विप॑त्मनो॒ नर्य॑स्य॒ प्रय॑ज्योः ।
स्वसा॒ यद् वां विश्वगूर्ती॒ भरा॑ति॒ वाजा॒येट्टे॑ मधुपावि॒षे च॑ ॥२॥
यु॒वं पय॑ उ॒स्रिया॑यामधत्तं प॒क्वमा॒माया॒मव॒ पूर्व्यं॒ गोः ।
अ॒न्तर्यद् व॒निनो॑ वामृतप्सू ह्वा॒रो न शुचि॒र्यज॑ते ह॒विष्मा॑न् ॥३॥
यु॒वं ह॑ घ॒र्मं मधु॑मन्त॒मत्र॑ये॒ ऽपो न क्षोदो॑ऽवृणीतमे॒षे ।
तद् वां॑ नरावश्विना॒ पश्व॑इष्टी॒ रथ्ये॑व च॒क्रा प्रति॑ यन्ति॒ मध्व॑: ॥४॥
आ वां॑ दा॒नाय॑ ववृतीय दस्रा॒ गोरोहे॑ण तौ॒ग्र्यो न जिव्रि॑: ।
अ॒पः क्षो॒णी स॑चते॒ माहि॑ना वां जू॒र्णो वा॒मक्षु॒रंह॑सो यजत्रा ॥५॥
नि यद् यु॒वेथे॑ नि॒युत॑: सुदानू॒ उप॑ स्व॒धाभि॑: सृजथ॒: पुरं॑धिम् ।
प्रेष॒द् वेष॒द् वातो॒ न सू॒रिरा म॒हे द॑दे सुव्र॒तो न वाज॑म् ॥६॥
व॒यं चि॒द्धि वां॑ जरि॒तार॑: स॒त्या वि॑प॒न्याम॑हे॒ वि प॒णिर्हि॒तावा॑न् ।
अधा॑ चि॒द्धि ष्मा॑श्विनावनिन्द्या पा॒थो हि ष्मा॑ वृषणा॒वन्ति॑देवम् ॥७॥
यु॒वां चि॒द्धि ष्मा॑श्विना॒वनु॒ द्यून् विरु॑द्रस्य प्र॒स्रव॑णस्य सा॒तौ ।
अ॒गस्त्यो॑ न॒रां नृषु॒ प्रश॑स्त॒: कारा॑धुनीव चितयत् स॒हस्रै॑: ॥८॥
प्र यद् वहे॑थे महि॒ना रथ॑स्य॒ प्र स्य॑न्द्रा याथो॒ मनु॑षो॒ न होता॑ ।
ध॒त्तं सू॒रिभ्य॑ उ॒त वा॒ स्वश्व्यं॒ नास॑त्या रयि॒षाच॑: स्याम ॥९॥
तं वां॒ रथं॑ व॒यम॒द्या हु॑वेम॒ स्तोमै॑रश्विना सुवि॒ताय॒ नव्य॑म् ।
अरि॑ष्टनेमिं॒ परि॒ द्यामि॑या॒नं वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥१०॥
यु॒वो रजां॑सि सु॒यमा॑सो॒ अश्वा॒ रथो॒ यद्वां॒ पर्यर्णां॑सि॒ दीय॑त् ।
हि॒र॒ण्यया॑ वां प॒वय॑: प्रुषाय॒न् मध्व॒: पिब॑न्ता उ॒षस॑: सचेथे ॥१॥
यु॒वमत्य॒स्याव॑ नक्षथो॒ यद् विप॑त्मनो॒ नर्य॑स्य॒ प्रय॑ज्योः ।
स्वसा॒ यद् वां विश्वगूर्ती॒ भरा॑ति॒ वाजा॒येट्टे॑ मधुपावि॒षे च॑ ॥२॥
यु॒वं पय॑ उ॒स्रिया॑यामधत्तं प॒क्वमा॒माया॒मव॒ पूर्व्यं॒ गोः ।
अ॒न्तर्यद् व॒निनो॑ वामृतप्सू ह्वा॒रो न शुचि॒र्यज॑ते ह॒विष्मा॑न् ॥३॥
यु॒वं ह॑ घ॒र्मं मधु॑मन्त॒मत्र॑ये॒ ऽपो न क्षोदो॑ऽवृणीतमे॒षे ।
तद् वां॑ नरावश्विना॒ पश्व॑इष्टी॒ रथ्ये॑व च॒क्रा प्रति॑ यन्ति॒ मध्व॑: ॥४॥
आ वां॑ दा॒नाय॑ ववृतीय दस्रा॒ गोरोहे॑ण तौ॒ग्र्यो न जिव्रि॑: ।
अ॒पः क्षो॒णी स॑चते॒ माहि॑ना वां जू॒र्णो वा॒मक्षु॒रंह॑सो यजत्रा ॥५॥
नि यद् यु॒वेथे॑ नि॒युत॑: सुदानू॒ उप॑ स्व॒धाभि॑: सृजथ॒: पुरं॑धिम् ।
प्रेष॒द् वेष॒द् वातो॒ न सू॒रिरा म॒हे द॑दे सुव्र॒तो न वाज॑म् ॥६॥
व॒यं चि॒द्धि वां॑ जरि॒तार॑: स॒त्या वि॑प॒न्याम॑हे॒ वि प॒णिर्हि॒तावा॑न् ।
अधा॑ चि॒द्धि ष्मा॑श्विनावनिन्द्या पा॒थो हि ष्मा॑ वृषणा॒वन्ति॑देवम् ॥७॥
यु॒वां चि॒द्धि ष्मा॑श्विना॒वनु॒ द्यून् विरु॑द्रस्य प्र॒स्रव॑णस्य सा॒तौ ।
अ॒गस्त्यो॑ न॒रां नृषु॒ प्रश॑स्त॒: कारा॑धुनीव चितयत् स॒हस्रै॑: ॥८॥
प्र यद् वहे॑थे महि॒ना रथ॑स्य॒ प्र स्य॑न्द्रा याथो॒ मनु॑षो॒ न होता॑ ।
ध॒त्तं सू॒रिभ्य॑ उ॒त वा॒ स्वश्व्यं॒ नास॑त्या रयि॒षाच॑: स्याम ॥९॥
तं वां॒ रथं॑ व॒यम॒द्या हु॑वेम॒ स्तोमै॑रश्विना सुवि॒ताय॒ नव्य॑म् ।
अरि॑ष्टनेमिं॒ परि॒ द्यामि॑या॒नं वि॒द्यामे॒षं वृ॒जनं॑ जी॒रदा॑नुम् ॥१०॥